जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग सत्य के प्रयोगमहात्मा गाँधी
|
0 |
महात्मा गाँधी की आत्मकथा
अपना यह हृदय-मंथन मैंने अवसर आने पर ईसाई मित्रो के सामने रखा। उसका कोई संतोषजनक उत्तर वे मुझे नहीं दे सके।
पर जिस तरह मैं ईसाई धर्म को स्वीकार न कर सका, उसी तरह हिन्दू धर्म की सम्पूर्णता के विषय में अथवा उसकी सर्वोपरिता के विषय में भी मैं उस समय निश्चय न कर सका। हिन्दू धर्म की त्रुटियाँ मेरी आँखो के सामने तैरा करती थी। यदि अस्पृश्यता हिन्दू धर्म का अंग हैं, तो वह सड़ा हुआ और बाद में जुड़ा हुआ अंग जान पड़ा। अनेक सम्प्रदायों की, अनेक जात-पाँत की हस्ती को मैं समझ न सका। अकेले वेदों के ईश्वर-प्रणीत होने का अर्थ क्या है? यदि वेद ईश्वर प्रणित हैं तो बाइबल और कुरान क्यो नहीं?
जिस तरह ईसाई मित्र मुझे प्रभावित करने के लिए प्रयत्नशील थे, उसी तरह मुसलमान मित्र भी प्रयत्न करते रहते थे। अब्दुल्ला सेठ मुझे इस्लाम का अध्ययन करने के लिए ललचा रहे थे। उसकी खूबियो की चर्चा तो वे करते ही रहते थे।
मैंने अपनी कठिनाईयाँ रायचन्द भाई के सामने रखी। हिन्दुस्तान के दूसरे धर्मचारियों के साथ भी पत्र-व्यवहार शुरू किया। उनकी ओर से उत्तर मिले। रायचन्द भाई के पत्र से मुझे बड़ी शान्ति मिली। उन्होंने मुझे धीरज रखने और हिन्दू धर्म का गहरा अध्ययन करने की सलाह दी। उनके एक वाक्य का भावार्थ यह था, 'निष्पक्ष भाव से विचार करते हुए मुझे यह प्रतीति हुई हैं कि हिन्दू धर्म में जो सूक्षम और गूढ़ विचार हैं, आत्मा का निरीक्षण है, दया हैं, वह दूसरे धर्मो में नहीं हैं।'
|