जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग सत्य के प्रयोगमहात्मा गाँधी
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महात्मा गाँधी की आत्मकथा
सम्मेलन में श्रद्धालु ईसाइयों का मिलाव हुआ। उनकी श्रद्धा को देखकर मैं प्रसन्न हुआ। मैं मि. मरे से मिला। मैंने देखा क कई लोग मेरे लिए प्रार्थना कर रहे है। उनके कई भजन मुझे बहुत मीठे मालूम हुए।
सम्मेलन तीन दिन चला। मैं सम्मेलन में आने वालो की धार्मिकता को समध सका, उसकी सराहना कर सका। पर मुझे अपने विश्वास में, अपने धर्म में, परिवर्तन करने का कारण न मिला। मुझे यह प्रतीति न हुआ कि ईसाई बन कर ही मैं स्वर्ग जा सकता हूँ अथवा मोक्ष पा सकता हूँ। जब यह बात मैंने अपने भले ईसाई मित्रो से कहीं तो उनको चोट तो पहुँची, पर मैं लाचार था।
मेरी कठिनाइयाँ गहरी थी। 'एक ईसा मसीह ही ईश्वर के पुत्र है। उन्हें जो मानता है वह तर जाता हैं।' --यह बात मेरे गले उतरती न थी। यदि ईश्वर के पुत्र हो सकते हैं, तो हम सब उसके पुत्र हो। यदि ईसा ईश्वर तुल्य है, ईश्वर ही है तो मनुष्य मात्र ईश्वर से समान हैं, ईश्वर बन सकता हैं। ईसा की मृत्यु से और उनके सक्त से संसार के पाप धुलते हैं, इसे अक्षरशः सत मानने के लिए बुद्धि तैयार नहीं होती थी। रुपक के रुप में उसमें सत्य चाहे हो। इसके अतिरिक्त, ईसाईयो का यह विश्वास है कि मनुष्य के ही आत्मा हैं, दूसरे जीवो के नहीं, और देह के नाश के साथ उनका संपूर्ण नाश हो जाता हैं, जब कि मेरा विश्वास इसके विरुद्ध था। मैं ईसा को एक त्यागी, महात्मा, दैवी शिक्षक के रुप में स्वीकार कर सकता था, पर उन्हे अद्वितीय पुरुष के रुप में स्वीकार करना मेरे लिए शक्य न था। ईसा की मृत्यु से संसार को एक महान उदाहरण प्राप्त हुआ। पर उनकी मृत्यु में कोई गूढ़ चमत्कारपूर्ण प्रभाव था, इसे मेरा दृदय स्वीकार नहीं सक सकता था। ईसाइयों के पवित्र जीवन में मुझे कोई ऐसी चीज नहीं मिली जो अन्य ध्र्मावलम्बियों के जीवन में न मिली हो। उनमे होने वाले परिवर्तनो जैसे परिवर्तन मैंने दूसरो के जीवन में भी होते देखे थे। सिद्धान्त की दृष्टि से ईसाई सिद्धान्तो में मुझे कोई अलौकिकता नहीं दिखायी पड़ी। त्याग की दृष्टि से हिन्दू धर्मावलम्बियों का त्या मुझे ऊँचा मालूम हुआ। मैं ईसाई धर्म को सम्पूर्ण अथवा सर्वोपरि धर्म के रुप में स्वीकर न कर सका।
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