धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत प्रेममूर्ति भरतरामकिंकर जी महाराज
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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन
मम दरसन फल परम अनूपा। जीव पाव निज सहज सरूपा।।
पर जैसे दृढ़ जहाज भी कर्णधार के बिना समुद्र में डूब सकता है या बिना लक्ष्य के इधर-उधर भटकता रहेगा। उसी प्रकार ज्ञान-प्राप्ति के पश्चात् भी मुक्ति के साथ उच्छृंखलता, अभिमान आदि आ सकते हैं और पुनः पतन।
जे ज्ञान मान बिमत्त तव भव हरनि भक्ति न आदरी।
ते पाइ सुर दुर्लभ पदादपि परत हम देखत हरी।।
इसीलिए भक्त चूड़ामणि ने कहा –
सोह न राम प्रेम बिनु जानु। करनधार बिन जिनि जलयानु।।
स्थूल रीति से तो चार ही फलों को पुरुषार्थ माना गया है, पर भावुक भक्तों ने प्रेम को चरम फल स्वीकार किया है। इसीलिए मुनि भरद्वाज ने ‘प्रभु-दर्शन’ का भी फल ‘भरत-दर्शन’ स्वीकार किया।
सुनहु भरत हम झूठ न कहहीं। उदासीन तापस बन रहहीं।।
सब साधन कर सुफल सुहावा। लषण राम सिय दरसन पावा।।
तेहिकर फल पुनि दरस तुम्हारा। सहित प्रयाग सुभाग हमारा।।
मोक्ष की उपलब्धि साधनों द्वारा सम्भव है (भले ही वह अज्ञान निवृत्ति के रूप में हो)। पर यह सन्त-दरश तो प्रभु की कृपा का ही परिणाम है – साधन लभ्य नहीं।
जब द्रवहिं दीन दयालु राघव साधु संगति पाइए।
सच तो यह है कि जैसे कथा-श्रवणादि साधनों से प्रभु-दर्शन की योग्यता उपलब्ध होती है, उसी प्रकार भरत-दर्शन की योग्यता उपलब्ध हुई, प्रभु-दर्शन से। मानो प्रभु तो इसी लक्ष्य से बन में आये थे। इसीलिए जहाँ कहीं विश्राम करते हैं, वहीं भरत की गुण-गाथा गाकर लोगों के चित्त में अद्भुत उत्कण्ठा का उदय करा देते हैं। और सुनने वाला यही सोचता है – कौन है महाभाग जिसका स्मरण कर प्रभु भी भावमग्न हो जाते हैं। प्रभु का वह प्रचार आज सफल हुआ। जैसा कि महर्षि ने स्वयं कहा –
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