धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत प्रेममूर्ति भरतरामकिंकर जी महाराज
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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन
पर प्रश्न यह होता है कि यश की इतनी प्रशंसा क्यों? लौकिक दृष्टि से यश-अर्जन श्रेयस्कर होते हुए भी भगवद्-मिलन के मार्ग में बाधक ही माना गया है। यशोलिप्सा व्यक्ति को मलिन बना देती है। सत्य से दूर कर देती है। अहंकार बिना यश-अर्जन संभव नहीं। अतः महर्षि के द्वारा उनकी इतनी प्रशंसा का क्या अभिप्राय है? उत्तर भी वही है। यह सब गुण होते हुए भी वह प्रशंसित न होता यदि उसमें एक विलक्षण श्याम मृग का निवास न होता।
कीरति बिधु तुम कीन्ह अनूपा। जहँ अस राम प्रेम मृग रूपा।।
लोकैषणा से भी भरत बहुत दूर हैं, उनकी भावना तो ‘लोग कहउ गुरु साहिब द्रोही’ में स्पष्ट है। उन्होंने यश का अर्जन नहीं किया है, अपितु यश ने ही अपने कलंक का प्रक्षालन करने के लिए (कलंक यह कि यश प्रभु से दूर कर देता है) श्री भरत का वरण किया है। मानों उसने यह स्पष्ट कर दिया कि राम-प्रेमी के द्वारा यश भी धन्य हो जाता है। वास्तव में श्री भरत में ‘पूर्ण राम प्रेम पियूष’ का ही निवास है। उनका यश भी प्रभु के निकटतम पहुँचा देने का सर्वोत्कृष्ट साधन है। महर्षि ने ‘यशचन्द्र’ के प्रारम्भ और अन्त दोनों में राम-प्रेम की ही ओर संकेत किया –
‘जहँ बस राम प्रेम मृग रूपा।’
‘पूरण राम सुप्रेम पियूषा।’
इसीलिए जहाँ यश-अर्जन करने वाले अपने को अमर करना चाहते हैं, वहाँ इस ‘यशचन्द्र’ का लक्ष्य दूसरों को प्रेमामृत का दान देकर अमर बनाना है। इसीलिए मुनिवर ने आमन्त्रित किया –
राम भगत अब अमिय अघाहू। कीन्हेउ सुलभ सुधा बसुधाहू।।
‘प्रेम’ जैसे अलभ्य पदार्थ को वसुधा में प्रत्येक प्राणी के लिए सुलभ बना देने वाले महापुरुष की तुलना दूसरों से की भी कैसे जाय। स्वयं परम कारुणिक उदारशिरोमणि भी प्रसन्न होकर मोक्ष का ही दान करते हैं। पर वह मोक्ष प्रेम की तुलना नहीं कर सकता। प्रभु के दर्शन का फल है स्वरूप की प्राप्ति।
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