धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत प्रेममूर्ति भरतरामकिंकर जी महाराज
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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन
कोउ कह रहन कहिअ नहिं काहू। को न चहिहि जग जीवन लाहू।।
दो. – जरउ सो संपति सदन सुखु सुहृद मातु पितु भाइ।
सनमुख होत जो राम पद करै न सहस सहाइ।।
पहली प्रकार के नागरिक वे थे जिनका राम में स्नेह होते हुए भी घर के प्रति राग था और दूसरे हैं भावुक जिन्हें राम प्रेम में सब कुछ त्यागने का, जलाने का भावोन्माद है। पर भरत क्या हैं? रागी अथवा त्यागी? क्या उन्होंने भी भवन में लौटकर सेवा-धर्म में सजग सेवकों को रक्षा के लिए नियुक्त किया। क्या भरत में भी घर के प्रति मोह था? वे सब कुछ छोड़कर राम की ओर चल पड़ने की अनुमति क्यों नहीं देते? भरत-भाव वस्तुतः राग और त्याग दोनों से ऊपर है। प्रथम प्रकार के लोग घर को अपना मानते थे अतः रक्षा की चिन्ता थी। दूसरे प्रकार के लोग त्याग को प्रस्तुत थे पर घर को अपना ही मानते थे तभी उसे जला देने का अधिकार स्वीकार करते थे। राग से त्याग में ऊँचाई हो सकती है, पक उसमें “मैं” की स्वीकृति है। अतः “मैं” रहते हुए राग में भी भय है और त्याग में भी। धर्मधुरन्दर ने सोचा मुझे न वस्तुओं को लेने का अधिकार है न नष्ट करने का। यह हमारे राम की पुनीत थाती है, जिसकी हमें रक्षा करनी है। इसीलिए रक्षक रखकर भी वस्तु में राग नहीं। और इतने बड़े राज्य के त्याग के पश्चात् भी वे ‘स्व’ दृष्टि में त्यागी नहीं। क्योंकि वस्तु राम की ही थी, उसमें त्याग का और ग्रहण का प्रश्न ही कहाँ उठता है। इसीलिए उनका चरित्र पतन की आशंकाओं की सीमा से परे है।
सम्पति सब रघुपति कै आही। जौं बिनु जतन चलउँ तजि ताही।।
तौ परिनाम न मोरि भलाई। पाप सिरोमनि साईं दोहाई।।
करइ स्वामि हित सेवकु सोई। दूषन कोट देइ किन कोई।।
असि बिचारि सुचि सेवक बोले। जे सपनेहुँ निज धरम न डोले।।
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