धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत प्रेममूर्ति भरतरामकिंकर जी महाराज
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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन
प्रियतम राघवेन्द्र को वन जाते देखकर कोटि-कोटि नागरिक उनके साथ चल पड़े थे। उसका संकल्प था – “क्या होगा राघव रहित अवध में रहकर। हम रहेंगे वन में अपने आराध्य के सन्निकट।” पर राह से लौटना पड़ा। क्योंकि रात आई तो श्रमित हो निद्रा मग्न हो गए। और राघवेन्द्र ने सुमंत्र से “खोज मारि रथ हाँकहुँ ताता” का अनुरोध किया। सुषुप्त नागरिकों से दूर, बहुत दूर चले गए प्रभु। वे न तो खोज पाए प्रभु का मार्ग। पर आज अवसर मिला है कि भरत के साथ जाकर उन्हें पकड़ सकें। उलाहना दे सकें कि “रामभद्र हम सबको छोड़कर तुमने जो कष्ट से हमें बचाने की चेष्टा की वह तुम्हारी कृपा थी या निष्ठुरता।”
मुझे इस कथा में जैसे सारे जीवों की गाथा दिखाई देती है। हम कितनी बार सब कुछ छोड़कर उनके रथ के पीछे दौड़ पड़ते हैं। पर बार-बार राह से लौटना पड़ता है। क्योंकि वह जो उदार हैं, हमारी क्षणिक भावुकता को पहचानता है। वह द्रवित हो उठता है। क्योंकि हम चलते हुए थक जाते हैं और भाव से नीचे उतर शरीर में आकर सो जाते हैं और तब उस अँधेरी रात में वह किधर चला गया, पता नहीं लग पाता। पर इसके साथ एक सन्देश है। हम भरत प्रेम का आश्रय लेकर उसकी राह ढूँढ़ सकते हैं। इन्हें भुलावा देने की शक्ति नहीं है उस छलिया में। भरत-आँखों में नींद कहाँ? और श्रम भी कैसा? वह शरीर में रहता कहाँ हैं! वह राह दिखावे तो हम नटनागर को भी चुनौती दे दें कि मिलने से रोक लो तो जानें। यह भरत-प्रेम है कि राह दिखाता है – उनसे मिलाता है। अतः आज भरत के आह्वान पर पुनः पुरवासियों में राम मिलन की आकांक्षाएँ उमड़ पड़ी। सभी लोग घर-बार की रक्षा के साथ वाहनों की व्यवस्था में संलग्न हैं। पर जिन्हें गृह-रक्षा के लिए नियुक्त किया गया, उनकी पीड़ा असह्य थी। मानो उन्हें मृत्यु-दण्ड दे दिया गया हो। उनकी व्याकुलता देखकर तो अनेकों की यही सम्मति होने लगी कि सभी को चलने की छूट दो। नष्ट हो जाने दो गृह-सम्पत्ति को, जो राम-मिलन में बाधक है।
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