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धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत

प्रेममूर्ति भरत

रामकिंकर जी महाराज

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :349
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9822
आईएसबीएन :9781613016169

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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन


अतः महाराज श्री के अन्तःकरण में छल की कल्पना सर्वथा निर्मूल है। मन्थरा ने युवराज पद पर अभिषेक की सूचना देते हुए दो सप्ताह से साज-समारम्भ जैसी कोई बात नहीं कही थी, क्योंकि उसे विश्वास था कि राज्याभिषेक का समाचार कैकेयी पर अपेक्षित प्रभाव डालेगा। पर कैकेयी ने जिस उत्साह से इस सूचना का स्वागत किया, उससे मन्थरा का निराश होना स्वाभाविक था। अतः षड्यन्त्र की भावना की पुष्टि के लिए ही उसने बाद में दो सप्ताह से राज्याभिषेक की सजावट का समाचार गढ़ कर सुना दिया।

भयउ पाख दिन सजत समाजू।
तुम्ह पाई सुधि मोहि सन आजू।।

और तब घटना-चक्र ऐसे रूप में प्रत्यवर्तित होता है कि सारी अयोध्या शोक में डूब जाती है। वातसल्यमयी कैकेयी अम्बा जैसे निष्ठुरता की मूर्ति बन जाती है। कोई न डिगा सका उन्हें अपने निर्णय से। ‘राम को बन जाना होगा और अयोध्या का राजा होगा मेरा पुत्र भरत’ – यह था उनका अकाट्य निर्णय। व्यथा के अथाह सागर में निरुपाय-सी सारी प्रजा डूब गई। स्तब्धता, आक्रोश, पीड़ा से सारा वातावरण बोझिल हो उठा।

राम बन चले तो साथ में प्रिया और अनुज का जाना अवश्यम्भावी ही था। और तब उनके वियोग में पीड़ा और पश्चात्ताप से जर्जर महाराज श्री ने प्राण त्याग कर दिया। और यह सब हुआ सर्वसमर्थ राम के नगर में। क्या, यह सब केवल देवताओं की इच्छा का परिणाम था? नहीं, स्वयं सूत्रधार राम की प्रेरणा के अभाव में यह सब हो पाना असंभव था। उसने चाहा क्योंकि उस नटनागर को मन्थन करना था भरत-समुद्र का। उससे जो भी पीड़ा हो, विनाश हो, सब कुछ थोड़ा है उस अमूल्य अमृत की तुलना में, जिसे पीकर युगों तक मनुष्य की चिर तृष्णा शान्त होने वाली थी। मानवता को अमर करने के लिए प्रभु की यह वह कृपा थी, जिसे हम कुलिश कठोर कह सकते हैं।

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