धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत प्रेममूर्ति भरतरामकिंकर जी महाराज
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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन
इधर श्री भरत के हृदय में व्यथा के साथ ही द्वन्द्व का उदय भी हो आया। एक ओर राघवेन्द्र की आज्ञा, तो दूसरी ओर प्रभु पर भीषण संकट। निश्चय ही यह एक बड़ी जटिल समस्या थी। जिस पर आज भी प्रश्न उठाया जाता है। ऐसा समाचार सुनकर भी श्री भरत सहायता के लिए क्यों न गए? उनके हृदय में यह प्रश्न उठा था। उन द्वन्द्व के लिए गोस्वामी जी ने मार्मिक उपमा दी है –
आयसु इतहिं स्वामि संकट उत परत न कछू कियो है।
तुलसिदास बिदर्यो अकाश सो कैसे कै जात सियो है?
“आकाश फट जाए, तो उसे कैसे सिया जाए?” कितना मार्मिक भाव है। आकाश का फटना असम्भव है। वह सर्वत्र व्यापक और निराकार है। यहाँ यह घटना ही आकाश का फटना है। भगवान राम के लघु भ्राता शेषावतार श्री लक्ष्मण एक तुच्छ राक्षस से पराजित हो जाएँ – अखिल ब्रह्माण्ड नायक संकट में। कैसे महान आश्चर्य है। आकाश के फटने की अपेक्षा भी असम्भव। पर सुन चुके हैं स्पष्ट। तब क्या करें? उसे सिएँ? कौन सिए? किससे सिएँ?
एक पंक्ति में गुप्त रूप में गोस्वामी जी ने उत्तर दे दिया। ध्यान से पढ़ने पर रहस्य प्रकट हो जाता है। संकट से व्याकुल होकर सहायता के लिए जाना चाहें, यह स्वाभाविक है। पर प्रभु को तो यह अभीष्ट नहीं है। उसका सारा नाट्य ही बिगड़ जायेगा। यह खेल, जो बन्दर-भालुओं की सेना को साथ में लेकर किया जा रहा है एक ओर रह जाएगा। फिर घर से सहायता लेने से व्रत भंग की भी आशंका है। अतः अन्तर्यामी सूत्रधार ने ऐश्वर्य की स्मृति करा दी। ऐसा नहीं है कि प्रेमियों को ऐश्वर्य ज्ञान नहीं होता। वैसे तो नाट्य-रक्षा के लिए प्रभु उन्हें अधिकांश समय माधुर्य से पूरित रखते हैं। क्योंकि सदा ऐश्वर्य ज्ञान की भी आवश्यकता पड़ जाती है। अतः उस समय माहात्म्य-ज्ञान को उदित कर देते हैं। श्री लक्ष्मण जी तो माधुर्य के अनन्योपासक हैं। सदा ऐश्वर्य-ज्ञान से दूर रहकर अविवेकी पुरुष की भाँति राम सेवा में संलग्न हैं –
सेवहिं लखन सीय रघुबीरहि। जिमि अविवेकी पुरष सरीरहि।।
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