धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत प्रेममूर्ति भरतरामकिंकर जी महाराज
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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन
समाचार कहि गहरु भो तेहि ताप तयो हैं।
कुधर सहित चढ़ौ, विसिष, बेगि पठवौं,
सुनि हरि-हिय गरब गूढ़ उपयो है।।
तीर तें उतरि जस कह्यो चहै, गुन गननि जयो है।
धनि भरत ! धनि भरत! करते भयो,
मगन मौन रह्यो, मन अनुराग रयो है।।
यह जल-बिधि खन्यो, मथ्यो लँघ्यो बाँध्यो अँचयो है।
तुलसिदास रघुबीर-बन्धु-महिमा को
सिन्धु तरि को कबि पार गयो है।
समुद्रोल्लंघन करने वाले महावीर भी इस महिमा के सिन्धु को नहीं पार कर सके। श्री हनुमान शीघ्र गति से यह कहते हुए चले कि आपकी कृपा से मैं बाण-गति से ही पहुँचूँगा। पर मार्ग में वे प्रतिक्षण पुलकित हो रहे हैं। कभी प्रेममूर्ति का बाहुबल स्मरण करके, तो कभी उनकी तपस्या का स्मरण करके श्रद्धावनत हो जाते हैं। उनके प्रेम की स्मृति से तो उनका रोम-रोम प्रेममय हो जाता है।
भरत बाहु बल सील गुन प्रभु पद प्रीति अपार।
जात सराहत मन महुँ पुनि पुनि पवनकुमार।।
जौं न होत जग जनम भरत को।
तौ कपि कहत, कृपान-धार मग चलि, आचरत बरत को?
धीरज-धरम धरनि धर धुरहुँ ते गुरु धुर धरनि धरत को?
सब सद्गुन सममानि आनि उर अघ ओगुन निदरत को?
सिवहु न सुगम सनेह राम पद सुजननि सुलभ करत को?
सृजि निज जस-सुर तरु तुलसी कहँ अभिमत फरनि फरत को?
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