धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत प्रेममूर्ति भरतरामकिंकर जी महाराज
|
|
भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन
जब ते चित्रकूट ते आए।
नन्दि ग्राम रवनि अवनि, डासि कुस, परन कुटी करि छाए।1।
अजिन बसन, फल असल, जटा धरे रहत अवधि चित दीन्हें।
प्रभु-पद-प्रेम-नेम-ब्रत निरखत मुनिन्ह नमित मुख कीन्हें।2।
सिंहासन पर पूजि पादुका बारहिं बार जोहारे।
प्रभु अनुराग माँगि आयसु पुरजन सब काज सँवारे।3।
तुलसी ज्यों-ज्यों घटत तेज तनु, त्यों-त्यों प्रीति अधिकाई।
भए न हैं, न होहिगें कबहूँ भुवन भरत से भाई।4।
यद्यपि महाकवि रामानन्य हैं और सर्वत्र उन्हें अपने राम का ही गुण दीखता है। जैसा श्री गीध जी के प्रसंग में – यद्यपि प्रभु के कार्य में उन्होंने प्राणार्पण कर दिया था, अतः उन्हें मुक्ति मिलनी स्वाभाविक है। पर उसमें भी वे अपने राघव का ही गुण देखते हैं –
गीध अधम खग आमिष भोगी।
गति दीन्ही जो जाचत जोगी।।
शबरीजी यद्यपि परम भक्तिमती थीं, पर उनको गति देने में भी उन्हें अपने कौशलपाल कृपालु के ही गुण दीखते हैं –
जाति हीन अघ जन्म महि मुक्त कीन्हि असि नारि।
महामंद मन सुख चहसि ऐसे प्रभुहि बिसारि।।
उपर्युक्त उद्धरणों से उनका पक्ष प्रकट है। किन्तु आज रामानन्य सब नियम भूल तुलना कर बैठे प्रेममूर्ति श्री भरत और राघवेन्द्र की और निर्णय भी बड़ा विलक्षण दे दिया –
लखनु राम सिय कानन बसहीं।
भरतु भवन बसि तनु कसहीं।।
दोउ दिसि समुझि कहत सब लोगू।
सब बिधि भरत सराहन जोगू।।
एक ओर हैं राघव, लक्ष्मण और जगज्जननी जानकी की तपस्या दूसरी ओर भवनस्थ भरत की तपस्या। किन्तु दोनों ओर अच्छी तरह देखने से यह ज्ञात हो जायेगा कि सब प्रकार से श्री भरत ही सराहने योग्य हैं – और वे यह मन “सब लोगू” कहकर व्यक्त करते हैं। निर्विवाद सिद्ध है यह सिद्धान्त।
|