धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत प्रेममूर्ति भरतरामकिंकर जी महाराज
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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन
उधर कोमल कारुणिक रामभद्र लौटकर वटवृक्ष के नीचे बैठे आँसू बहा रहे हैं। भरत के स्नेह का वर्णन प्रियाजी व लक्ष्मण को सुनाते हैं, पर कंठ रुद्ध हो जाता है – कह नहीं पाते। फिर प्रारम्भ करते हैं, क्योंकि कहे बिना रहा नहीं जाता। चित्रकूट का प्रमोद और मंगल से पूर्ण वन विषाद की सीमा बन गया है। समस्त तरु, लता, बल्लरी कुम्हलाई हुई हैं। पक्षियों का कमनीय कूजन कहीं सुनाई नहीं पड़ता। मृगों का समूह, जिस मार्ग से भरत गए हैं, उस ओर देखता हुआ आँसू बहा रहा है –
प्रभु सिय लखन बैठु बट छाहीं।
प्रिय परिजन बियोग बिलखाहीं।।
भरत सनेह सुभाउ सुबानी।
प्रिया अनुज सन कहत बखानी।।
प्रीति प्रतीति बचन मन करनी।
श्रीमुख राम प्रेम बस बरनी।।
तेहि अवसर खग मृग जल मीना।
चित्रकूट चर अचर मलीना।।
इधर श्री भरत अवध में पहुँच गए हैं। शासन कार्य के लिए यथायोग्य नियुक्ति करके शत्रुघ्न जी को मातृसेवा को सौंपते हैं। समस्त पुरवासियों को सान्त्वना देकर सुखपूर्वक निवास की प्रार्थना करते हैं। इसके पश्चात् दोनों भ्राता गुरुदेव के निकट जाकर उन्हें प्रणाम करते हैं और नियमपूर्वक रहने की आज्ञा माँगते हैं। स्नेह, प्रसन्नता और आदर से महर्षि का हृदय भर आया। आज तक आस्तिक वैदिकों ने जो स्वतंत्रता भगवान् को भी नहीं दी – वे कहते हैं “वेद ही प्रामाण्य है। भगवान् का भी वही आचरण उपदेश मान्य है, जो वैदिक हो” क्योंकि वेद ही उनकी दृष्टि में “सकल दोष शंका कलंक पंक अस्पष्ट” है। व्यक्ति में तो अनेक दोष हो सकते हैं। जब आस्तिक जन वेद को ही प्रामाण्य मानते हैं, भगवान् को नहीं, तब किसी व्यक्ति को प्रमाण मानना तो दूर रहा। पर विश्व-इतिहास में एक व्यक्ति ऐसा भी हुआ, जिसे वेद सदृश ही प्रमाण योग्य स्वीकार किया गया है। वे हैं हमारे धर्ममूर्ति भरत। और यह प्रामाण्य भी किसी साधारण जन ने नहीं ब्रह्मपुत्र धर्मशास्त्र निर्माता महर्षि वसिष्ठ ने स्वीकार किया। आज उन्होंने श्री भरत से स्पष्ट कह दिया – भरत ! मैं अन्यों को ही धर्माधर्म का निर्णय बता सकता हूँ। पर तुम को...।
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