धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत प्रेममूर्ति भरतरामकिंकर जी महाराज
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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन
सारा समाज प्रभु से यथायोग्य मिलकर चलने के लिए प्रस्तुत हो गया। श्री भरत ने पुनः राघवेन्द्र के पुनीत पद-पद्मों की वन्दना की और उसके बाद चित्रकूट-निवासी मुनियों की वन्दना करते हैं – रुद्ध कण्ठ से कहते हैं – “हमारे प्रभु राम की रक्षा करना।” वन देव की स्तुति करते हैं। “देव ! हमारे कौशल पाल तुम्हारे आश्रम में निवास करते हैं। उन्हें कष्ट न हो। इस दीन की यही प्रार्थना है।” स्नेहपूरित हृदय से महात्माओं ने आशीर्वाद दिया। आश्वासन दिया। बार-बार चलते हैं और लौटकर प्रभु के अंक से लिपट जाते हैं। अहा ! वह स्नेह, वह करुणा क्या वाणी का विषय है? समस्त पुरवासी ही नहीं, पशु भी प्रभु के वियोग से व्यथित हो रहे हैं। अश्व आँसू बहाते हुए कृपालु कौशलपाल की ओर देखते हैं – करुणानिधान भी स्नेह से अपने कोमल करकमलों से उनका स्पर्श करते हैं – पुचकारते हैं। पर उनका हृदय फटा जा रहा है – पग आगे की ओर पड़ते ही नहीं। विवश होकर जाना पड़ रहा है – आज वे वायुवेग को लज्जित करने वाले नहीं हैं – उनकी गति मन्थरता की सीमा है –
हृदयँ रामु सिय लखन समेता।
चले जाहिं सब लोग अचेता।।
बसह बाजि गज पमु हियँ हारें।
चले जाहिं परबस मन मारें।।
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