धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत प्रेममूर्ति भरतरामकिंकर जी महाराज
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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन
वाणी को पवित्र कर सकने के अभाव में कवि की सुमति निराश नहीं हो गई, उसने नेत्र से आनन्द लेना प्रारम्भ किया। उसकी ओर महाकवि संकेत करते हैं।
श्री भरत का यश निर्मल चन्द्र है और सुमति चकोर कुमारी। भक्त के हृदयाकाश में उस नव इन्दु का उदय देखकर एकटक देख रही है। यहाँ चकोर-कुमारि भी साभिप्राय है। चकोरी तो चकोर की पत्नी भी है। अतः उसे दो से स्नेह है ‘चकोर’ और ‘चन्द्रमा’ से – किन्तु यह सुमति तो ‘चकोर-कुमारी’ है। इसका अनुराग एकमात्र चन्द्र में ही है। इसी प्रकार कवि की सुमति अन्य किसी ओर दृष्टि ही नहीं डालती। उसका अनुराग एकमात्र भरत यशचन्द्र में है।
अन्त में कवि कहता है कि यदि श्री भरत का यश मेरी मति नहीं कह पाती, तो इसमें लज्जा की कोई बात नहीं। क्योंकि भरत स्वभाव का वर्णन तो वेदों को भी सुगम नहीं है। पर कवि ! तब भी तो तुम उनके विषय में कहते ही हो। यह क्यों? उत्तर देते हैं – “मेरी लघु बुद्धि की चंचलता क्षमा हो। प्रश्न उठता है कि उसकी मति लघु होने पर भी भक्तिप्रदत्त है अतः इस चपलता में कोई रहस्य अवश्य होगा।”
कवि कहता है कि हाँ यही बात है। भले ही पूर्ण रीति से न कह सके, फिर भी श्री भरत का सद्भाव कहने-सुनने से श्री सीता राम चरणों में अनुराग अवश्य हो जाता है। कोई ऐसा व्यक्ति नहीं जिसे ऐसा करने से प्रेम न हुआ हो। पर कवि ! यदि कोई कहने की शक्ति न रखता हो किंवा सुनाने वाला न मिले तब क्या करें?
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