धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत प्रेममूर्ति भरतरामकिंकर जी महाराज
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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन
कुल में जब कोई नववधू आती है, तब उसे मर्यादा का बड़ा ध्यान रखना पड़ता है। वह अपने से पूर्व आई हुई वधुओं का ही अनुसरण करती है। यहाँ गोस्वामी जी अपनी सुमति का कविकुल में नवीन वधू के रूप में उल्लेख करते हैं। भरत-महिमा सबकी पूजनीया सास की तरह है। उसके प्रति नवीन वधू के हृदय में नव उल्लास है। वह उनसे कुछ बात करना चाहती है। किन्तु उससे पूर्व आई हुई वधुएँ आदर-श्रद्धा के कारण मौन हैं। (पूर्वगता वधुएँ हैं श्री शारदा, महात्मा वसिष्ठ की मति, महाराज जनक की मति) यह सब की सब भरत-महिमा के विषय में मौन रहती हैं। और उनके सामने पहुँचते ही संकुचित हो जाती हैं। जैसे –
कहति प्रीति शारद सकुचाई।
(शारदा)
भरत महा महिमा जलरासी।
मुनि मति ठाढ़ि तीर अबलासी।।
(महात्मा वसिष्ठ)
सो मति मोरि भरत महिमाहीं।
कहै काह छलि छुअति न छाँही।।
(जनक)
अतः कविकुल की यह मर्यादा देखकर गोस्वामी जी की सुमति रूपा नववधू अपनी धृष्टता पर संकुचित हो जाती है। इसी दृष्टि से गोस्वामी जी कहते हैं कि “कविकुल कानि मानि सकुचानी”। सीधी भाषा में कहें तो इसका अर्थ हुआ कि जब बड़े-बड़े कवि न कह सके, तो मैं क्या कहूँ? कहने की इच्छा तो बड़ी प्रबल है, क्योंकि महिमा के गुणों पर मेरी सुमति मुग्ध है। पर जैसे इच्छा होने पर भी बालक अपनी बात वाचा-शक्ति के अभाव में नहीं कह पाता, उसी तरह वह भी असमर्थ है। (जैसे बालक क्षुधा लगने पर वाणी के अभाव में रुदन के द्वारा अपनी असमर्थता का ज्ञापन करता है, उसी प्रकार भरत-महिमा में अभिरुचि होने पर भी वे भाषा-शक्ति के अभाव में असमर्थ हैं। अतः असमर्थता का ज्ञापन कर रहे हैं।
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