धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत प्रेममूर्ति भरतरामकिंकर जी महाराज
|
|
भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन
इसे यों स्पष्ट किया जा सकता है कि जल का आधार भी पृथ्वी ही है–
जिमि थल बिनु जल रहि न सकाई।
कोटि भाँति कोउ करै उपाई।।
उसी प्रकार समस्त यश जल भरत के किञ्चित गुणों के ही आश्रित हैं। उनके एक भी गुण का अनुकरण करने से यश प्राप्त हो सकता है। यही आश्रित होना है। भरत जी आश्रय हैं। इसका अभिप्राय यही है कि भरत समस्त गुणगुणाश्रय प्रभु के सदृश्य ही हैं। तद्रूप हैं। अतः जैसे मीन का कार्य जल तक सीमित है, थल में एक पग भी नहीं चल सकती, उसी प्रकार भरतमहिमा का वर्णन असम्भव है।
महाराज ने कहा कि “अधिक क्या भरत महिमा राम को छोड़ कोई दूसरा व्यक्ति नहीं जानता, किन्तु वे भी वर्णन नहीं कर सकते” –
भरत अमित महिमा सुनु रानी।
जानहिं रामु न सकहि बखानी।।
इसके पश्चात् ज्ञान-मुकुट-मणि कौशल्या जी के प्रस्ताव आते हैं। पहले हमें कौशल्या जी के प्रस्ताव की भावना पर थोड़ा विचार कर लेना चाहिए। उनके प्रस्ताव की मूल भित्ति इस धारणा पर आश्रित है कि श्री भरत के हृदय में राम के प्रति गूढ़ स्नेह है। यद्यपि वे स्पष्ट रूप से यह नहीं कहेंगे कि आप लक्ष्मण को लौटाकर मुझे साथ ले चलें, किन्तु उनके हृदय में यह इच्छा अवश्य होगी। प्रभु यदि लक्ष्मण को साथ ले गये, तो तपस्वी भरत उसे सहन तो कर लेंगे, किन्तु उन्हें भीषण मानस कष्ट होगा कि राघवेन्द्र ने मुझे साथ ले जाना उपयुक्त न समझा। किन्तु यह तो कौशल्या माता का वात्सल्य है, जो उन्हें ऐसा सोचने को बाध्य करता है। प्रश्न है कि अम्बा का यह तर्क उपयुक्त है या नहीं? जहाँ तक साधारण व्यरक्ति कल्पना कर सकते हैं सभी को ऐसा प्रतीत होगा कि अम्बा का तर्क उचित है।
|