धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत प्रेममूर्ति भरतरामकिंकर जी महाराज
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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन
यहाँ हम वह प्रसंग लिखने का लोभ संवरण नहीं कर सकते, जहाँ शिष्य गुरु के लिए प्रेम-शिक्षक बना। शिष्य का अनुकरण कर गुरु ने अपने को धन्य किया।
निषादराज भरत का स्वागत करने के लिए कन्द-मूल आदि लेकर आते हैं और आकर उन्होंने महर्षि को साष्टांग प्रणाम किया – महर्षि ने आशीर्वाद दिया। यहाँ यह बात बड़ी हृदयग्राही है कि निषाद ने अपनी मर्यादा का त्याग नहीं किया।
देखि दूर ते कहि निज नामू।
कीन्ह मुनीसहिं दण्ड प्रनामू।।
‘दूर से प्रणाम’ – उसकी मर्यादा ज्ञान का सूचक है। महर्षि में धार्मिक संस्कार ही प्रबल रहे, उन्होंने राम-सखा जानते हुए भी उसके साथ अधिक सामीप्य का व्यवहार नहीं किया। किन्तु श्री भरत ने ज्यों ही सुना – ‘अहो! यह तो राम-सखा है’, बस भूल गये स्थूल धर्म – उन्हें तो वह दीख रहा था जिसे स्वयं प्रभु ने हृदय से लगाया है और दौड़कर उसे हृदय से लगा लेते हैं। अवश्य ही उस अवसर पर महर्षि लज्जित हुए होंगे। अपने शिष्य की इस प्रेममयता को देखकर। “हाँ! आज मैं संस्कार और लोक-प्रथा में पड़कर पवित्र प्रेमी के स्पर्श से वंचित रहा, अवश्य ही मुझमें प्रेमाभाव है, तभी तो मुझे राम-सखा का निषादत्व दिखा। एक बार जिसका नाम लेने से व्यक्ति तारन तरन हो जाता है, उस प्रभु का प्रिय सखा मुझसे दूर रहा” और तब उन्होंने निर्णय किया कि अवसर आते ही मैं भी प्रेममूर्ति भरत का अनुकरण करूँगा। सौभाग्य से उन्हें वह सुअवसर प्राप्त भी हुआ, जब राघवेन्द्र के साथ निषादराज भी गुरु की अगवानी के लिए आये और पुनः उसी रीति से उन्होंने प्रणाम किया।
नाउँ जाति गुह नाम सुनाई।
कीन्ह प्रनाम माथ महि लाई।।
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