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धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत

प्रेममूर्ति भरत

रामकिंकर जी महाराज

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :349
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9822
आईएसबीएन :9781613016169

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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन


“विश्व इतिहास में आज तक भरत के समान भ्राता उत्पन्न नहीं हुआ।” यह स्तुति नहीं, एक सत्य है। जो आज भी उतना ही सत्य है, जितना त्रेता में था। विश्व इतिहास के समस्त पृष्ठ उलट जाइए – अन्त में निराश होकर कहना पड़ेगा कि “भयउ न भरत सम भाइ”।

भगवान् राघवेन्द्र ने प्रमाण-स्वरूप जो बात उपस्थित की है, वह बड़ी ही भावपूर्ण है। जो लोग गुरुचरणों में प्रेम करते हैं, वे लोक और वेद दोनों ही दृष्टियों से सर्वोत्कृष्ट और भाग्यवान हैं (अभिप्राय यह है कि यदि श्री भरत ही आपके चरणों के अनुरागी होते, तो इतने मात्र से ही लोकवेद दोनों में वे भाग्यवान स्वीकृत हो जाते) पर इस प्रकार के गुरु-चरणानुरागी बड़भागियों का लोक में अभाव नहीं। किन्तु यहाँ तो सिद्धान्त ही उलट गया, जब आप ही शिष्य के अनुरागी हो गये। यह स्मरण रहे कि शिष्य को ही गुरु चरणों का अनुरागी होना चाहिए – गुरु को नहीं। अनुराग का अर्थ है विवेक को छोड़कर समर्पण। यह पूर्ण विश्वास का सूचक है। शिष्य तो गुरु के वात्सल्य का ही अधिकारी है – अनुराग का नहीं। तभी गुरु शिष्य को उचित-अनुचित का निदेश कर सकेगा। गुरु पूर्ण है। अतः उससे अनुराग करने में पतन की सम्भावना नहीं। पर यदि गुरु अनुरागी हो जाए, तो इसका अर्थ है शिष्य की इच्छा का अनुगमन। साधारणतया यह पतन का कारण ही बनेगा। किन्तु यहाँ महर्षि ही अनुरागी होकर “भरत भगति बस भइ मति मोरी” की घोषणा करते हैं। ऐसी परिस्थिति में दो कारणों की ही कल्पना हो सकती है : (1) गुरु की भूल, (2) अथवा यह कि गुरु-दृष्टि में शिष्य स्वयं ही अपेक्षा से भी अधिक योग्य हो गया है। यह अगाध विश्वास और शिष्य की महत्ता का सूचक है। महर्षि से भूल की आशा हम नहीं कर सकते, तब द्वितीय कारण ही उचित है। वास्तव में यहाँ शिष्य गुरु की अपेक्षा प्रेम और धर्म दोनों ही आगे हैं। अतः गुरु को ही शिष्य का अनुरागी होना उचित है। क्योंकि ऐसी परिस्थिति में शिष्य ही गुरु का कल्याण करता है। धन्य है वह शिष्य जिस पर गुरु का इतना अगाध विश्वास हो। और धन्य है वह गुरु जिसे इतना योग्य शिष्य प्राप्त हो। श्री भरत ने तो समग्र सिद्धान्त ही पलट दिए। लोग जानते हैं कि गुरु शिष्य का मार्ग-दिग्दर्शक होता है, पर यहाँ तो शिष्य ही मार्ग-प्रदर्शक बन गया। लोक-इतिहास में ऐसे उदाहरण मिलते हैं, जब शिष्य की सद्भावना से अयोग्य गुरुओं का भी कल्याण हो गया हो – किन्तु कल्याण-स्वरूप महर्षि को भी कुछ सीखना पड़े ऐसा उदाहरण सम्भवतः विश्व में अकेला है एकमात्र श्री भरत का। ऐसी परिस्थिति में प्रभु का यह निर्णय भावना ही नहीं, तर्क की कसौटी पर भी खरा है। हम भी अपना क्षीणकण्ठ मिला देते हैं “को कहि सकै भरत कर भागू” में।

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