धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत प्रेममूर्ति भरतरामकिंकर जी महाराज
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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन
नीरव निस्तब्ध निशा में जब चित्रकूट का सम्पूर्ण तपोवन शान्त है – सब लोग निद्रा-निमग्न हैं, तब जाग रहे हैं केवल दो महापुरुष! एक हैं वीरव्रती-लक्ष्मण, वे कौशलेन्द्र की वर्तमान चिन्ता में निमग्न धनुष-बाण लेकर रक्षा कर रहै हैं। दूसरे हैं परमानुरागी श्री भरत, वे प्राणाभिराम के भविष्य-चिन्तन में तल्लीन हैं। दोनों ही प्रेमी ‘तत्सुख-सुखित्व’ के आदर्श का निर्वाह कर रहे हैं। श्री भरत की चिन्ताधारा अत्यधिक तीव्र है। उसमें जटिलता है।
केहि विधि होइ राम अभिषेकू।
मोहि अवकलत उपाउ न एकू।।
‘राघवेन्द्र भैया को राज्याभिषिक्त करने का क्या उपाय है?’ मन ने कहा – गुरुदेव की आज्ञा का उल्लंघन प्रभु नहीं कर सकते। यदि महर्षि आज्ञा दे दें तो, सुगमता से समस्या हल हो सकती है, पर वे क्या ऐसा करेंगे? बुद्धि ने उत्तर दिया – ‘कदापि नहीं, उनका रघुवीर के प्रति वात्सल्य ही नहीं, आदरभाव भी है। वे राम की इच्छा के विरुद्ध एक भी शब्द न कहेंगे।’ उधर से निराशा हुई तो मन ने माँ की ओर संकेत किया – कौशल्या अम्बा की ओर। ‘क्या हुआ यदि पिता की आज्ञा-पालन करने के लिए प्रभु बन में आए हैं – माँ का स्थान पिता की अपेक्षा अत्यधिक उच्च है। यदि वे लौटने की आज्ञा दे दें, तो धर्म के नाते भी श्री राघवेन्द्र उसे अस्वीकृत न कर सकेंगे। अवश्य लौट चलेंगे।’ बुद्धि ने कहा – ‘पर वे राम-जननी हैं। यदि श्रीराम धर्म समझ कर वन-वन भटक सकते हैं, तो वे भी पति-प्राणा हैं। वे धर्म का उल्लंघन क्यों करने लगीं? फिर क्या मैं नहीं जानता कि अपने लाल के वियोग में उन्हें कितना कष्ट हुआ होगा। यदि उन्हें रोकना होता तो वन आते समय ही रोक देतीं? उन्होंने आज्ञा दे दी “पितु आयसु सब धर्म को टीका” कहकर। अतः उधर से भी निराशा मिलेगी।’
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