धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत प्रेममूर्ति भरतरामकिंकर जी महाराज
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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन
दो. – निसि न नींद नहिं भूख दिन भरतु बिकल सुचि सोच।
नीच कीच बिच मगन जस मौनहि सलिल सँकोच।।
जल की पंकिलता और अल्पता से मीन को जैसी व्यथा होती है, वैसी ही स्थिति भरत की भी है। यह उपमा बड़ी सार्थक है। यों तो जल में कमठ, दादुर आदि का भी निवास है और जल के प्रति आकर्षण भी, किन्तु सच्चा अनुराग एकमात्र मीन का ही है।
मीन, कमठ, दादुर उरग जल जीवन जल गेह।
तुलसी एकै मीन को, है साँचिलो सनेह।।
जल क्रमशः सूख रहा है। पर कमठ, दादुर को उसकी इतनी चिन्ता नहीं, वे क्रीड़ा में निमग्न हैं। रहा-सहा जल भी पंकिल होता जा रहा है। मीन उसे देखती है, उसकी आँखों में पानी भर जाता है। बेचारी मीन सोचती है, जल का सूखना कैसे बन्द हो? यह स्वच्छ कैसे हो? क्योंकि अन्य लोग जल के उपभोक्ता हैं, पर मीन प्रेमी है। जल उसका जीवन है। जल उसका त्याग कर दे, पर वह उसे नहीं छोड़ती। जब तक जल में रहती है, उसको स्वच्छ करती है। वियोग में अपने प्राण छोड़ देती है। धीवन उसे जल से अलग कर देता है पर मृत्यु में उसे संतोष है क्योंकि वह प्रेम के लिए मरी है। किन्तु यहाँ तो स्थिति दूसरी ही है। जल को उससे पृथक् किया जा रहा है। जल सूख रहा है। एक सच्चे प्रेमी की भाँति आज प्रेम में जल ने ही बाजी मार ली। मीन के देखते देखते वह सूख रहा है – पंकिल हो रहा है और वह उसके लिए कुछ नहीं कर पा रही है। प्रेमी मीन की इस असमर्थता की कल्पना कीजिए और तब श्री भरत की ओर देखिए। प्रभु का मिलन ही जल है। पुरवासी आनन्दमग्न हैं। उनका अनुराग न हो ऐसी बात नहीं। पर वे भीषण भविष्य की ओर ध्यान नहीं दे रहे हैं। वियोग की घड़ी निकट आ रही है। अब तो कर्त्तव्य-बंधन में श्री भरत बलपूर्वक राघवेन्द्र से अलग किए गए थे। पर स्थिति परिवर्तित हो चुकी है। वे स्वयं ही इस ‘मिलन-जल’ को सदा के लिए स्थिर बनाने के लिए आये थे – राज्याभिषेक का साज सम्भार लेकर वे प्रभु का राज्याभिषेक करने आये थे, पर कोई उपाय नहीं सूझता है, और तब वे सोचते हैं, “क्या यह मिलन बेला समाप्त होकर रहेगी? हम कुछ न कर पावेंगे – धर्म-रवि की किरणें सुखा देंगी इस नीर को? कहाँ तो आये थे प्रभु को सुखी बनाने और कहाँ स्वयं दर्शन का सुख लेकर लौटना पड़ेगा।” वे सोचते हैं यदि हम प्रभु को राज्याभिषिक्त न कर सके, वन के कष्टों को न मिटा सके, तो यहाँ आकर राघवेन्द्र के लिए संकोच और कष्ट के कारण ही तो बने। जल को और भी पंकिल बना दिया।
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