धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत प्रेममूर्ति भरतरामकिंकर जी महाराज
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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन
रामहिं बन्धु सोच दिन राती।
और श्री भरत का मन सदा प्राणाभिराम की चिन्ता में लगा रहता है। उनके संकल्प-विकल्प का केन्द्र प्रभु ही हैं। दोनों के इस मिलन से मन संकल्पात्मक न रहकर प्रेमाकार हो जाता है। जब द्वन्द्व नहीं, तो बुद्धि का कार्य समाप्त। निर्णय के अभाव में चित्त भी क्या करेगा। और कर्त्तत्व ही नहीं, अहंकार कैसा? प्रेमतीर्थ में स्नान करके मानों तत्काल ही उन सबका रूप परिवर्तन हो गया और वे सब ‘प्रेम’ हो गये।
लाली मेरे लाल को जित देखौं तित लाल।
लाली खोजन मैं गई हो गई लाल गुलाल।।
भक्ति की मधुमयी राका यामिनी में जब प्रेम रूप पूर्ण चन्द्र का उदय होता है, उस समय भावनाएँ विविध रूप में आनन्दमग्न हो उसके सुशीतल प्रकाश में यत्र-तत्र क्रीड़ा करती डोलती हैं। उनका यथार्थ चित्रण असम्भव होते हुए भी जब मन-बुद्धि-चित्त-अहंकार रूप भूमि पर उनकी छाया पड़ती है, तब रसिक सूक्ष्मदर्शी मनीषी कुछ शब्दों में उस छाया के ही अंकन का प्रयास करता है। वह प्रेम के नाम पर जो कुछ कहता है वह छाया है – वास्तविकता नहीं, पह हम सबको कृत-कृत्य करने के लिए वही यथेष्ट हैं।
किन्तु जब भावनाएँ अपने विविध रूपों का त्याग करके चन्द्रिका बन जाएँ। भूमि भी द्रवित होकर रस-रूपा बन जाये, तब किसकी छाया कहाँ पड़े? और कवि वर्णन के लिए किस छाया का आश्रय ग्रहण करे? उस समय की असमर्थता ही हमें उस उन्मादिनी स्थिति का किंचित संकेत करती है। यहाँ कवि भी मानो पाठकों से पूछ बैठते हैं –
कहहु सुप्रेम प्रगट को करई।
केहि छाया कबि मति अनुहरई।।
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