धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत प्रेममूर्ति भरतरामकिंकर जी महाराज
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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन
दमकेउ दामिनि जिमि जब लयऊ। पुनि नभ धनु मंडल सम भयऊ।।
हाँ दर्शकों ने तो यही देखा कि वे यथापूर्व खड़े हैं। टूटा धनुष सामने पड़ा है।
लेत चढ़ावत खैंचत गाढ़े काहु न लखा देख ठाढ़े।
कवि के नेत्रों में महत् शक्ति होती है। पर इस प्रसंग में तो कविकुल-कमल-दिवाकर भक्ताग्रगण्य भी उनको दौड़कर जाते हुए देख न सके।
कैसा मनोहारी दृश्य है – श्यामद्वय के मिलन का। मानो प्रेम और श्रृंगार मूर्तिमान होकर मिल रहे हों। श्याम तमाल-सा वर्ण, कोटिकाम-कमनीय श्रीअंग, रतनारे अश्रुपूर्ण नयन, आजानुलाम्बिनी करिकर सी भुजाएँ – ऐसे हैं कामाभिराम ‘राम’। और भूमि में पड़े हुए भी ठीक वैसे ही हैं। भेद का स्थान वहाँ नहीं। धनुष, बाण, निषंग के त्याग से सर्वथा एकरूपता हो गई है और प्रभु हृदय से लगाकर रहे-सहे अन्तर को भी मिटा देना चाहते हैं। पर वे तो पाद-पदम् को छोड़ना ही नहीं चाहते हैं। राघवेन्द्र का आग्रह अन्त में सफल होता है। आज प्रेमी प्रियतम का शरीर, मन, बुद्धि, चित्त सभी एकमेव हो रहा है। इस मिलन का दृश्य देखकर देखने वाले भी आत्मविस्मृत हो गए। उस परिस्थिति और प्रेम का वास्तविक चित्रण कर सकना असम्भव है। असीम को सीमा में कैसे आबद्ध किया जा सकता है।
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