धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत प्रेममूर्ति भरतरामकिंकर जी महाराज
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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन
यहाँ प्रभु की शीघ्रता की मार्मिक अभिव्यंजना गोस्वामी जी ने अपनी अनूठी शैली से की है। ‘बेसुध शरीर’ से उठने के पश्चात् उनके चलने या दौड़ने का कोई उल्लेख महाकवि नहीं करते हैं वे तो कहते हैं कि श्रीराम प्रेम-विह्वल होकर उठे – निषंग-पट धनुष-तीर गिरने की स्मृति भी न रही और हठात् अनुराग-रससार सरोवरोद्भूत दिव्य सरोज भरत को हृदय से लगा लेते हैं –
उठे रामु सुनि पेम अधीरा। कहुँ पट कहुँ निषंग धनु तीरा।।
दो. – बरबस लिए उठाइ उर लाए कृपानिधान।
भरत राम की मिलनि लखि बिसरे सबहि अपान।।
उठने और हृदय से लगा लेने के बीचवाली स्थिति का उल्लेख क्यों नहीं करते? इस प्रसंग पर मुझे स्मरण हो आता है आर्त्तगजेन्द्र की गाथा का। ‘ग्राह’ पूर्ण वेग से सरोवर में खींचे लिए जा रहा है ‘गज’ को। स्त्री-पुरुष-कलत्र सभी चेष्टा करके हार चुके हैं। चारों ओर निराशा ही निराशा है। तभी हृदयान्धकार में एक क्षीण रेखा दिखाई पड़ी अनाथ-बन्धु, लोकनाथ भगवान् विष्णु की कृपा की। प्रतिक्षण मृत्यु निकट आ रही है। विह्वल कण्ठ से पुकार उठा – “हे जगन्निवास! मैं मदान्ध चारों ओर से निराश होकर आपकी शरण में हूँ, रक्षा कीजिए।” गजेन्द्र की आर्त्त पुकार बैकुण्ठनाथ के कानों तक पहुँची और गरुड़ पर बैठकर चलने लगे। देवी लक्ष्मी ने पूछा – “भगवन् इतनी शीघ्रता में कहाँ?” उत्तर देने लगे – कहना चाहते थे “हाथी”। पर उस समय की आतुरता देखने योग्य थी। शीघ्रगामी गरुड़ की चाल भी मन्थर प्रतीत होने लगी, तो कूद पड़े वाहन से। भावुकों का कथन है कि “ ‘हा’ रह्यो भवन बीच, ‘थी’ गयन्द पास ही में” ‘हा’ शब्द लक्ष्मी जी सुन चुकी थी – शब्द का उच्चारण तो गजेन्द्र के निकट हुआ। चक्र से नक्र के टुकड़े-टुकड़े कर गजराज को कष्ट से मुक्त कर दिया। गजेन्द्र तो आर्त्त भक्त था। श्री भरत से उसकी तुलना कैसे की जा सकती है। आज प्रेमी ने पुकारा – ‘पाहि नाथ’ ‘रक्षा कीजिए, रक्षा कीजिए’ – तो प्रभु लज्जित हो उठे। अहो! “योगक्षेमं वहाम्यहम्” की मेरी प्रतिज्ञा झूठी हो गई। भक्त को पुकारना पड़ा। उठे पर उसके पश्चात् शीघ्रता से दौड़े, यह कल्पना असह्य है। जगन्निवास की अधीरता की कल्पना भी हम नहीं कर सकते। कवि उठने के पश्चात् हृदय से लगाने का उल्लेख करता हुआ मानो हमें बताना चाहता है कि हमने तो उठने के बाद हृदय से लगाते ही देखा- चलते या दौड़ते नहीं। धनुष तोड़ने के अवसर पर भी रघुवंश-शिरोमणि ने बड़ी शीघ्रता की थी। लोगों ने उन्हें खड़े ही देखा – धनुष उठाते-चढ़ाते-तोड़ते नहीं। पर कवि ने सभी क्रियाएँ देख लीं।
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