धर्म एवं दर्शन >> परशुराम संवाद परशुराम संवादरामकिंकर जी महाराज
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रामचरितमानस के लक्ष्मण-परशुराम संवाद का वर्णन
हनुमान् जी ने रावण से कहा था कि तुम प्रभु के चरणों को हृदय में धारण करो और लंका का अचल राज्य करो। रावण ने बिगड़कर पूछा कि लंका का राज्य मैं नहीं कर रहा हूँ तो क्या तुम कर रहे हो? मेरी लंका मुझी को दे रहे हो! पर हनुमान् जी ने उसमें एक शब्द जोड़ा था, उस पर रावण की दृष्टि ठीक से नहीं गयी। वह शब्द था ‘अचल’। अभी तुम्हारा पद चल है, अचल नहीं है। अगर तुम भगवान् के चरणों का आश्रय ले लोगे तो वह अचल हो जायेगा। रावण को हनुमान् जी की बात पर हँसी आ गयी कि मेरा पद तो अचल है ही, मुझे कौन हटाने वाला है? बन्दर व्यर्थ की बात कर रहा है। अंगद ने जब मुक्का मारा और सिंहासन से रावण मुँह के बल गिरा तो अंगद का व्यंग्य था कि तुम्हारा पद तो इतना चल है कि बन्दर के मुक्के से तुम गिर पड़े, तो जब ईश्वर का मुक्का पड़ेगा तो क्या होगा? यह कल्पना जरा कर लो! इसी को तुम अचल समझने की भूल कर बैठे हो!
सृष्टि का कोई पद, कोई पदार्थ अचल नहीं है। ये सब अनित्य हैं। यही बताने के लिए अंगद ने मुक्के का प्रहार किया था, अपने बल और पौरुष का प्रदर्शन करने के लिए नहीं। रावण जब गिरा तो उसने भी वही किया जो संसारी लोग करते हैं। जब कोई गिरता है या सत्ता छूटने लगती है तो फिर से पकड़ने की चेष्टा करता है। यह मानवीय स्वभाव है, प्रकृति है। गिरते ही रावण को सबसे पहली चिन्ता अपने मुकुटों की हो गयी। तुरन्त उसने अपने हाथ बढ़ाये और फलतः छः मुकुट रावण के हाथ में आ गये तथा चार मुकुट अंगद के हाथ में। रावण प्रसन्न हो गया क्योंकि शास्त्रों में यह कहा गया है कि जब सर्वनाश हो रहा हो तो आधा बचा लेने वाला भी पण्डित है, तो चलो मैंने तो पाँच की जगह छः मुकुट बचा लिए। इससे मेरे पाण्डित्य में किसी को सन्देह नहीं होना चाहिए। अंगद के हाथ में चार मुकुट ही आये।
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