धर्म एवं दर्शन >> परशुराम संवाद परशुराम संवादरामकिंकर जी महाराज
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रामचरितमानस के लक्ष्मण-परशुराम संवाद का वर्णन
रावण की मंदोदरी ने यह उलाहना दिया कि जब महाराज जनक ने यह प्रतिज्ञा की कि धनुष तोड़ने वाले को मैं अपनी कन्या दूँगा तो आपके लिए यह मार्ग खुला हुआ था। आप धनुष तोड़कर सीताजी को पा लेते। तब आपकी निन्दा और आलोचना न होती। तब आपने ऐसा क्यों नहीं किया? रावण ने अपनी बात बनाने के अनुकूल यह कहा कि मंदोदरी! अगर जनक ने केवल इतनी प्रतिज्ञा की होती कि धनुष उठाने वाले को मैं अपनी कन्या अर्पित करूँगा तो मैं क्षणभर में धनुष उठा देता, क्योंकि जिसने शंकरजी सहित कैलास पर्वत को उठा लिया, उसके लिए धनुष उठाना तो बायें हाथ का खेल था, परन्तु जनकजी ने शर्त रख दी तोड़ने की। तुम जानती हो कि वह धनुष मेरे गुरुजी का था। गुरुजी की वस्तु को तोड़ना, यह तो शिष्य के लिए उचित नहीं था। गुरुदेव का अनादर न हो इसीलिए मैंने धनुष को नहीं तोड़ा। मंदोदरी को चुप हो जाना पड़ा।
अंगद ने रावण की सभा में ही रावण की कलई खोल दी। अंगद ने कहा कि जनकपुर में सीताजी की प्राप्ति के लिए जनकजी ने प्रतिज्ञा की थी, आज मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि –
जौं मम चरन सकसि सठ टारी।
फिरहिं राम सीता में हारी।। 6/33/9
व्यंग्य क्या था? वहाँ उठाना और तोड़ना दोनों था और यहाँ उठाना ही है तोड़ना नहीं और उठाने में भी कोई शंकरजी का धनुष नहीं है, बन्दर का चरण है। इसलिए तुम चेष्टा करो। दोनों प्रसंगों के केन्द्र में श्रीसीताजी हैं और दोनों जगह प्रतिज्ञा से जुड़ी हुई बात है। अंगद ने श्रीसीताजी को केन्द्र में रखकर जो वार्तालाप किया, उसमें अन्तर कहाँ है ? यह बड़े महत्त्व का प्रश्न है कि अंगद-रावण-संवाद की परिणति वैसी नहीं होती जैसी श्री लक्ष्मण-परशुराम-संवाद की हुई। यहाँ बड़ा विचित्र व्यंग्य है। यहाँ पर धनुष टूटने के पूर्व ऐसा लगता था कि जैसे सीताजी श्रीराम को प्राप्त नहीं हैं और वहाँ यह लगता है कि अंगद की प्रतिज्ञा तो बड़ी विचित्र है। श्रीसीताजी तो श्रीराम के पास नहीं हैं, श्रीसीताजी तो लंका में हैं और जब श्रीसीताजी लंका में हैं ही, तब अंगद के द्वारा यह प्रतिज्ञा करना कि मैं श्रीसीताजी को हारता हूँ, यह तो बड़ा विचित्र है।
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