धर्म एवं दर्शन >> परशुराम संवाद परशुराम संवादरामकिंकर जी महाराज
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रामचरितमानस के लक्ष्मण-परशुराम संवाद का वर्णन
परशुराम संवाद
आजकल रामलीला में लोगों को लक्ष्मण-परशुराम तथा अंगद-रावण संवाद अधिक रोचक प्रतीत होता है जिसमें अधिक भीड़ होती है। जिस दिन झगड़े की बात हो, तू-तू, मैं-मैं हो, उस दिन लोगों को अधिक रस की अनुभूति होती है। बहिरंग दृष्टि यही है, पर ‘रामायण’ में ये दोनों प्रसंग गम्भीर हैं। दोनों प्रसंग एक-दूसरे के पूरक हैं। उस सूत्र पर आप दृष्टि डालिए, जिस संदर्भ में ये दोनों संवाद हुए हैं। धनुष टूटने पर परशुराम आते हैं और उनके गुरु शंकरजी के धनुष टूटने पर बड़ा क्रोध प्रदर्शित करत् हैं और लक्ष्मणजी से संवाद होता है। कहना तो यह चाहिए कि यह राम-राम संवाद है।
तुलसीदासजी ने इसे लक्ष्मण-परशुराम संवाद नहीं लिखा, गोस्वामीजी के शब्द इसके लिए बड़े महत्त्व के हैं। वे कहते हैं कि यह राम-राम संवाद है। राम का परशुराम से संवाद हुआ, परन्तु लोगों ने उतना रस और आनंद इसमें नहीं लिया, जितना लक्ष्मण-परशुराम संवाद में लिया, क्योंकि श्रीराम के संवाद में उस प्रकार का व्यंग्य, विनोद और आक्षेप तो है ही नहीं। इसलिए नाम चुनने में भी साधारण व्यक्ति ने अपनी रुचि का परिचय दिया तथा राम-राम संवाद को भी लक्ष्मण-परशुराम संवाद के रूप में देखना पसन्द किया।
इस प्रसंग की पृष्ठभूमि है – धनुर्भंग के बाद परशुरामजी का क्षोभ, क्रोध और इस प्रसंग में उनका भगवान् राम और लक्ष्मण से उत्तर और प्रतिउत्तर तथा दूसरा अंगद-रावण-संवाद लंका में हुआ। ये दोनों नगर एक-दूसरे के विरोधी नगर हैं। जनकपुर विदेहनगर है और रावण की लंका देहनगर है। एक संवाद विदेहनगर में हुआ तो दूसरा देहनगर में और दोनों संवादों के केन्द्र में श्रीसीताजी ही हैं। धनुर्भंग के बाद श्रीपरशुरामजी का आगमन होता है। रावण की सभा में भी अंगद ने रावण से कहा था कि यदि आप मेरा चरण हटा दें तो श्रीसीताजी को मैं हार जाऊँगा और श्रीराम भी लौट जायेंगे।
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