धर्म एवं दर्शन >> लोभ, दान व दया लोभ, दान व दयारामकिंकर जी महाराज
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मानसिक गुण - कृपा पर महाराज जी के प्रवचन
दिन में आप मंत्री हैं, सेठ हैं, अध्यक्ष हैं, पर रात में सब छोड़कर आप अकेले होना चाहते हैं। खूब गहरी नींद में सोना चाहते हैं। व्यक्ति जागकर कहता है- कितनी अच्छी नींद आयी! बड़ा आनंद आया। कैसी विचित्र बात है - कुछ नहीं होने पर भी आपको कितना आनंद आता है! कई लोग कथा में सो जाते हैं। उन्होंने इसका भी दुरुपयोग किया। जिस समय सुनना चाहिये, सो गये। कथा-लाभ से वंचित रह गये! यदि रात में योजना बनाते-बनाते जागते रहे तो उसका भी आनन्द नहीं ले सके। यदि कोई रात को नहीं सोयेगा तो अंत में वह पागलपन की स्थिति तक भी पहुँच सकता है। यह समाज में, व्यक्ति के जीवन में दिखायी देता है। कुछ एक पागल ही पागलखाने में दिखायी देते हैं, अधिकांश पागल तो खुले में घूमते हुए दिखायी दे रहे हैं। ये जितने अनर्थकारी होते हैं, वे सब पागल ही होते हैं। पागलपने में बड़े-बड़े काम भी करते हैं। देखा गया है कि पागल व्यक्ति में बड़ी शक्ति आ जाती है। पर उसके इस गुण को देखकर आप प्रसन्न तो नहीं होते, उल्टा यही प्रयास करते हैं कि किसी तरह से वह शान्त हो जाय।
व्यक्ति को धन की आवश्यकता है और उसके लिये व्यक्ति को लाभ चाहिये। कबीरदास जी भी यही प्रार्थना करते हैं कि -
साई इतना दीजिए जामे कुटुम समाय।
मैं भी भूखा ना रहूँ साधु न भूखा जाय।।
उन्होंने एक् सीमा बना ली- इतना चाहिये, इतने की अपेक्षा है। लोग इस प्रश्न को लेकर एक अनिर्णय की स्थिति में देखे जाते हैं कि कितना चांहिये। हमारी क्या-क्या आवश्यकताएँ होनी चाहिये। लोभ का रूप इतना विराट है, अपार है कि वह सब कुछ उदरस्थ कर जाना चाहता है। पर कबीरदासजी ने कितना सुंदर सूत्र दे दिया कि जिसमें 'स्वार्थ' और 'परमार्थ' दोनों ही पक्ष. सिद्ध हो जाते हैं। वे कहते हैं कि आपको जो कुछ प्राप्त हो उससे अपनी भूख की तृप्ति के साथ-साथ दूसरों की भी भूख मिटाने की दृष्टि रखनी होगी। केवल 'पाना' ही नहीं है, देना भी है। जब ऐसी दृष्टि जीवन में आ जाय, व्यक्ति 'देना' सीख जाय तो जीवन में संतुलन आ जायगा। यही दृष्टि लाभ को लोभ बनने से रोक सकती है।
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