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धर्म एवं दर्शन >> क्रोध

क्रोध

रामकिंकर जी महाराज

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :56
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9813
आईएसबीएन :9781613016190

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मानसिक विकार - क्रोध पर महाराज जी के प्रवचन


वात-प्रकृति-प्रधान व्यक्तियों को बहुधा शारीरिक पीड़ा तथा जोड़ों में दर्द का अनुभव होता है। पित्त-प्रधान व्यक्ति को शरीर में जलन की अनुभूति होती है और इसी तरह कफ-प्रधान व्यक्ति शीतजन्य रोगों जैसे सर्दी-खाँसी आदि से पीड़ित दिखायी देता है। आयुर्वेद शास्त्र का नियम है कि दवा देने में रोग के साथ रोगी की भी प्रकृति का ध्यान रखा जाता है। इस विषय में आयुर्वेद एवं वर्तमान 'होम्योपैथी' के सिद्धान्त में समानता है। यदि पित्त-प्रधान व्यक्ति को खाँसी हो और उसे मिटाने के लिये उष्ण-प्रकृति की दवा भी दे दी जाय, तो परिणाम में खाँसी भले ही कम हो जाय, पर पित्त का कष्ट बढ़ जायेगा। दवा ऐसी नहीं होनी चाहिये कि जो एक कष्ट को तो मिटाये पर दूसरे कष्ट को बढ़ा दे। इसीलिए आयुर्वेद में नाड़ी के द्वारा निदान करने की परंपरा रही है जिससे रोगों की प्रकृति को देखकर दवा दी जा सके।

शरीर के संबंध में जैसे तीन विकारों की बात कही गयी, ठीक उसी प्रकार से 'मानस' में मन के भी तीन विकारों की बात कही गयी है। 'मानस-रोगों' की शरीर के रोगों से तुलना करते हुए गोस्वामीजी कहते हैं कि 'काम' ही बात है, 'क्रोध' पित्त है और 'लोभ' ही कफ है –

काम बात कफ लोभ अपारा।
क्रोध पित्त नित छाती जारा।। 7/120/30


इन विकारों की प्रधानता से काम-प्रधान, क्रोध-प्रधान या लोभ-प्रधान वृत्ति वाले व्यक्ति हमें समाज में दिखायी देते हैं।

मनुष्य के शरीर रहते तक तो यह सम्भव नहीं है कि वात, पित्त और कफ को पूरी तरह मिटा दिया जाय, क्योंकि तब तो शरीर ही मिट जायेगा और मनुष्य की मृत्यु हो जायगी। इसलिए वैद्य जब दवा देता है तो उसका उद्देश्य वात, पित्त और कफ को मिटा देना नहीं होता। इसी प्रकार से मन में काम, क्रोध और लोभ सर्वथा हो ही नहीं, यह असंभव है। अत: इन विकारों को समाप्त करने की आवश्यकता नहीं है, अपितु इनमें संतुलन लाने की आवश्यकता है और इसके लिये इनमें से जो विकार या रोग उग्र हो गया है वह शान्त हो, ऐसी दवा देने की आवश्यकता है।

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