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मानसिक गुण - कृपा पर महाराज जी के प्रवचन
हृदयरोग अर्थात् काम का रोग! दोनों ही मत अपने-अपने स्थान पर हैं और उचित भी प्रतीत होते हैं। पहली दृष्टि से तो यही लगता है कि श्रृंगार की बात यदि खुलकर लिखी जाय तो पढ़ने वाले के मन पर इसका बुरा असर पड़ेगा। पर भक्तों की दृष्टि भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। वैसे दुरुपयोग करने की वृत्ति वाले तो अच्छी से अच्छी वस्तु का भी दुरुपयोग करते देखे जाते हैं। वे ऐसा करते ही रहेंगे और उन्हें रोका भी नहीं जा सकता। पर यहाँ जो बात विशेष ध्यान देने योग्य है वह इस रूप में हमारे समक्ष आती है कि भगवान् कृष्ण की इस रसमयी दिव्यलीला को देखने के लिये आप कहाँ जायेंगे? क्या यह कोई बाहर देखने की वस्तु है? आप इसके सूत्र पर थोड़ा विचार करें!
भगवान् कृष्ण के हाथ में आप जो वंशी देखते हैं, उसकी महिमा और मधुरता का व्रज के संतों और भक्तों ने अपने ग्रन्थों में बहुत अधिक वर्णन किया है। पर आपने ध्यान दिया होगा कि श्यामसुंदर की यह वंशी केवल वृन्दावन तक ही उनके साथ रही, बजती रही। मथुरा या द्वारका में भगवान् कृष्ण के हाथ में वंशी फिर दिखायी नहीं देती। कुरुक्षेत्र में तो उसके ब्रजने का प्रश्न ही नहीं है। जिस वंशीनाद को सुनकर गोपियाँ भगवान् कृष्ण की ओर आकृष्ट होती हैं, वह सर्वत्र निनादित नहीं हो सकता। उसके मुखरित होने के लिये अनुकूल भूमि तो एकमात्र वृन्दावन की भावभूमि ही है। व्यक्ति यदि वस्तु का रस स्थूल रूप से ही पाने का अभ्यस्त है, तो वह वस्तु और शरीर से ही जोड़कर आनंद की बात करेगा, पर हम बिना स्थूल वस्तु के अपनी भावना में भी रस और आनंद का अनुभव कर सकते हैं। वस्तुत: ज्यों-ज्यों व्यक्ति की वृत्ति सूक्ष्म होती जाती है, त्यों-त्यों उसका आनंद भी, शरीर और वस्तु से ऊपर उठकर, भावना से जुड़ जाता है। भगवान् कृष्ण की इस महारास की लीला का जो वर्णन किया गया है उसका उद्देश्य ही यही है कि शरीर स्थूल जगत् से व्यक्ति ऊपर उठे और इस महारास के रस का आनंद भाव जगत् में ले और जिस भक्त को हृदय की भूमि में इस दिव्य रस को ग्रहण करने का अभ्यास हो जाता है, उसे फिर बाह्यजगत् में रस प्राप्ति के लिये भटकने की आवश्यकता नहीं रह जाती।
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