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धर्म एवं दर्शन >> काम कामरामकिंकर जी महाराज
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मानसिक विकार - काम पर महाराज जी के प्रवचन
धनुष यज्ञ के मंडप में श्रीसीताजी पधारती हैं। भगवान् राम तो पहले से ही वहाँ मंच पर विराजमान हैं। अब यहाँ पर सीताजी भगवान् राम को उस तरह से एकटक तो नहीं देख सकतीं, जैसे पुष्पवाटिका में देख रही थीं, इसलिए यहाँ वे एक दूसरी विधि से भगवान् राम का दर्शन करती हैं। गोस्वामीजी सीताजी की दृष्टि का वर्णन करते हुए कहते हैं कि वे एक बार दृष्टि ऊपर उठाकर भगवान् राम की ओर देखती हैं और दूसरे ही क्षण दृष्टि नीची करके पृथ्वी की ओर देखने लगती हैं –
वे बार-बार ऐसा करती हैं। इस प्रकार उस समय श्रीसीताजी के नेत्रों में जो चंचलता दिखायी देती है, गोस्वामीजी उस दृश्य का वर्णन करते हुए कहते हैं कि
खेलत मनसिज मीन जुग जनु बिधु मंडल डोल।। 1/256
'श्रीसीताजी के चंचल नेत्र ऐसे लग रहे हैं कि जैसे चन्द्रमा के अमृत से बने हुए दिव्य सरोवर में कामरूपी दो मछलियाँ खेल रही हों।' गोस्वामीजी सीताजी के नेत्रों की उपमा कामरूपी मछलियों से देते हैं, इससे तो उनका यही भाव स्पष्ट रूप से सामने आता है कि वे काम को सर्वथा त्याज्य और निंदनीय नहीं मानते। क्योंकि यदि वे ऐसा मानते तो श्रीसीताजी की आँखों में काम को स्थान कदापि नहीं देते। वे चाहते तो कोई अन्य उपमा ढूँढ लेते। पर वे काम का ही स्मरण करते हैं। गोस्वामीजी तो रस के भी सिद्ध कवि हैं। जिन्हें रस का समुचित ज्ञान न हो ऐसे कवि रस के संदर्भ में उपमा चुनने में चूक सकते हैं, गोस्वामीजी कदापि नहीं चूक सकते।
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