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मानसिक विकार - काम पर महाराज जी के प्रवचन
देवर्षि नारद का श्री वेदव्यास के प्रति यही व्यंग्य था कि तुमने महाभारत-जैसे विशाल इतिहास की सृष्टि करके समाज को क्या देना चाहा है? देवर्षि का उद्देश्य महाभारत के ज्ञान और दर्शन की अवहेलना करना नहीं था। इस क्षेत्र में महाभारत के अद्वितीय अवदान की सराहना उन्होंने प्रारम्भ में ही कर दी थी। किन्तु महाभारत के जातीय युद्ध की गाथा और व्यक्तियों के इतिहास को लेकर वे प्रश्न-चिह्न अवश्य प्रस्तुत करते हैं। इस दृष्टि से महाभारत की उपयोगिता संदिग्ध है। गोस्वामी तुलसीदासजी ने भी इस पर एक कटाक्ष किया, ''मैं तो चाहता हूँ कि लोग रामायण की शिक्षा का अनुगमन करें, किन्तु समाज तो महाभारत का अनुकरण कर रहा है। मुझ-जैसे दुष्ट की कौन सुने? कलियुग का स्वभाव ही कुचाल से प्रेम करना है-
रामायन सिख अनुहरत, जग भयो भारत रीति।
तुलसी सठ की को सुनै, कलि कुचाल पर प्रीति।।
स्वभावत: संघर्ष प्रिय मानव मन कौरव-पाण्डवों के चरित्र को अपना आदर्श बना लेता है। वह यह सोचकर सन्तुष्ट हो जाता है कि यदि द्वैपायन व्यास-जैसा महापुरुष पाण्डवों को आदर्श मानता है तो उसका अनुगमन करना क्या बुरा है?
देवर्षि नारद व्यास को श्रीमद्भागवत की रचना के लिये प्रेरित करते हैं और इस रचना के बाद ही व्यास, सन्तोष, शान्ति और प्रसन्नता का अनुभव करते हैं।
सद्गुण सम्पन्न श्री गणात्रा दंपति बहुत अच्छे साधक हैं, उनके स्वभाव की तेजस्विता और सेवा में अधीरता प्रभु से जुड़कर उनके लिये भूषण बन गयी। श्रीमती अंजुजी की श्रद्धा, समर्पणभाव जो मैंने अनुभव किया वह दुर्लभ है।
सत्साहित्य प्रकाशन में उनकी यह सेवा असंख्य भक्तों के लिये प्रेरणारूप रहेगी। उनके स्वर्गीय माता पिता उनकी मातृ-पितृ एवं गुरुभक्ति देखकर अवश्य आश्वस्त एवं प्रसन्न होंगे।
सम्पूर्ण गणात्रा परिवार के प्रति मंगलकामना करते हुए प्रभु से प्रार्थना! उनके जीवन में सुचिता, सुमधुरता एवं सुमति बनाये रखें। निष्ठा एवं समर्पण भाव से कार्यरत डा. चन्द्रशेखर तिवारी इस सत्संकल्प को साकार करने में मन-प्राण से लगे हुए हैं। उनकी श्रद्धा बलवती हो! यही शुभाशीष।
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