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हिन्दी साहित्य का दिग्दर्शन

मोहनदेव-धर्मपाल

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :187
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9809
आईएसबीएन :9781613015797

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हिन्दी साहित्य का दिग्दर्शन-वि0सं0 700 से 2000 तक (सन् 643 से 1943 तक)

(२) अखरावट- इसमें सूफी सिद्धान्तों के अनुसार साधना-मार्ग का प्रतिपादन किया गया है। किन्तु यहाँ भी साम्प्रदायिक भेद-भाव से ऊपर उठकर जीवन के लिए श्रेष्ठ आदर्शों का व्याख्यान हुआ है। उस परम प्रिय तक पहुँचने के विविध मार्गों की महत्ता को स्वीकार करता हुआ वह कहता है-

विधना के मारग हैं तेते; सरग-नखत तन रोवाँ जेते।
जेइ हेरा तेइ तहँ वै पावा, भा संतोष समुझि मन गावा।।

अखरावट में क, ख आदि वर्ण-क्रमों के अनुसार आध्यात्मिक उपदेशों का संकलन किया गया है। मुहम्मदी, सूफी तथा भारतीय साधना के इन तीनों मार्गो का इसमें प्रतिपादन हुआ है। जैसे जीव और ब्रह्म के एकरूप का वर्णन करता हुआ कवि कहता: है-

ठा-ठाकुर बढ़ आप गोसाई। जेइ सिरजा जग अपनइ नाई।।
आपुहि आप जो देखइ चहा। आपन प्रभुता आप से कहा।।
सवइ जगत दर्पन कै लेखा। आपुहि दर्पन आपुहि देखा।।

(३) आखिरी कलाम- इसमें मुहम्मदी सिद्धान्तों के अनुसार कयामत  (प्रलय) और मुहम्मद साहब की महत्ता का वर्णन है। प्रलयकाल में क्या अवस्था होती है, मैकाइल, जिब्राइल, इसराफील, अजराइल' आदि फरिश्ते उस समय क्या करते है, फिर 'आप गुसाईं की इच्छा से ये चारों फरिश्ते जीवित होकर मुहम्मद साहब को ढूँढ कर कहते है कि अपनी उम्मत को लेकर चलिए, वहां न्याय होगा। वे अपनी उम्मत को पार पहुंचाने के लिए 'आदम ईसा' आदि के पास गये; पर कोई भी सहायक न बना। तब मुहम्मद साहब ने अपने आप गुसाई से प्रार्थना की कि मैं अपनी उम्मत के दुःख अपने ऊपर लेता हूँ, इसलिए उसे मोक्ष दे दीजिए। तब खुदा ने मुहम्मद साहब के साथ सारी उम्मत को स्वर्ग भेज दिया। स्वर्ग जाने से पूर्व वहाँ की अदभुत जीमनार (प्रीतिभोज) तथा अप्सरा आदि स्वर्गीय उपभोगों का भी वर्णन किया गया है। मुहम्मद साहब के प्रति अनन्य आस्था प्रकट करने के लिए ही इस पुस्तक का निर्माण किया गया है।

(४) महरी बाईसी- डा. माताप्रसाद गुप्त द्वारा सम्पादित 'जायसी-ग्रन्थावली' में जायसी की इस चौथी रचना 'महरी बाईसी' का भी समावेश हुआ है। इसमें बारह-बारह पंक्तियों की बाईस कविताएँ हैं। भाषा इसकी पूर्वी अवधी है। एक नमूना देखिए-

सुनो बिनति मैं किरति बखानौ महाराज समहराई रे।
गयेऊ केवट को नाब चलावै को लागेऊ गहराई रे।।
कोई गुनलाई पंथ सिर धुनहू चला डोर गुन खींचहि रे।
तीर नीर उथले मे सोई गहिरे तो फल पावहिं रे।।

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