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हिन्दी साहित्य का दिग्दर्शन

मोहनदेव-धर्मपाल

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :187
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9809
आईएसबीएन :9781613015797

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हिन्दी साहित्य का दिग्दर्शन-वि0सं0 700 से 2000 तक (सन् 643 से 1943 तक)

(१) पद्मावत- यह अवधी भाषा में लिखा हुआ महाकाव्य है। इसमें चित्तौड़ के महाराज रत्नसेन और उनकी महारानी पद्मावती की कथा कही गई है। इसकी संक्षिप्त कथा इस प्रकार है-

सिंहलद्वीप के महाराज गन्धर्वसेन की पुत्री पद्मावती अनुपम सुन्दरी थी। उसके पास हीरामन नामक एक बड़ा विद्वान् तोता था। एक दिन वह पद्मावती से उसके योग्य वर न मिलने के सम्बन्ध में कुछ कह रहा था कि राजा ने सुन लिया और वह बहुत क्रुद्ध हुआ। इसलिए भय से तोता वहाँ से उड़ गया। जंगल में वह किसी बहेलिये के हाथों पडकर चित्तौड़ के एक ब्राह्मण के हाथ में बेच दिया गया। ब्राह्मण ने उसे चित्तौड़ के राजा रत्नसेन के पास पहुँचा दिया। अब तोता यहीं रहने लगा।

एक दिन राजा के शिकार के लिए चले जाने पर उसकी रानी नागमती ने हीरामन से पूछा कि क्या मेरे जैसी सुन्दर कोई दूसरी स्त्री भी धरती पर है। इस पर तोते ने पद्मावती की सुन्दरता का वर्णन किया। नागमती ने इस भय से कि यह महाराज के सामने भी पद्मावती की सुन्दरता की चर्चा न कर बैठे, अपनी दासियों को उसे जान से मार देने की आज्ञा दे दी; पर दासियों ने राजा के भय से उसे मारा नहीं। शिकार से लौटने पर राजा तोते के बिना बहुत दुखी हुआ, इस पर तोता उसके सामने उपस्थित कर दिया गया। पूछने पर हीरामन ने सारी घटना बता दी। पद्मावती के रूप का वर्णन सुनकर राजा तोते को साथ लेकर उसकी खोज में जोगी बनकर सिंहलद्वीप की ओर चल पड़ा। मार्ग के अनेक कष्टों और विघ्न-बाधाओं को सहता हुआ वह सिंहलगढ़ जा पहुँचा। वहाँ शिवजी की कृपा से पद्मावती को प्राप्त करने का उपाय जानकर उसने महाराज गन्धर्वसेन पर विजय प्राप्त कर ली। परिणामस्वरूप पद्मावती से उसका विवाह हो गया। इधर नागमती रत्नसेन के वियोग के दुःख में तड़प रही र्थो। उसने एक पक्षी के द्वारा अपनी दयनीय दशा और दुःखों की कहानी रत्नसेन के कानों तक पहुँचा दी। नागमती के दुःख की बात कानों में पड़ते ही रत्नसेन पद्मावती को लेकर चित्तौड़ की ओर चल पड़ा। मार्ग में लक्ष्मी ने रत्नसेन की परीक्षा लेने के लिए उसके जहाज को समुद्र में डुबो दिया। पर उनका सच्चा प्रेम देखकर पाँच अमूल्य उपहारों के साथ उन दोनों को फिर जहाज पर बैठाकर सकुशल चित्तौड़ पहुँचा दिया।

एक दिन महाराज रत्नसेन ने राघवचेतन नामक एक तान्त्रिक को, जिसने अपने तन्त्र-मन्त्र के बल से प्रतिपदा के दिन द्वितीया का चाँद दिखा दिया था, देश-निकाला दे दिया। इस पर उसने दिल्ली पहुंच कर अलाउद्दीन से पद्मावती के रूप की प्रशंसा की और उसे चित्तौड़ पर चढ़ाई करने के लिए उकसाया। अलाउद्दीन बारह वर्ष तक चित्तौड़ को घेरे रहा पर उसे तोड़ न सका। अन्त में उसने रत्नसेन को सन्धि के लिए बुलाया और छल से पकड़ कर दिल्ली ले गया। पद्मावती ने गोरा और बादल दोनों सेना-नायकों की सहायता से महाराज को सुलतान की कैद से छुड़ा लिया। लौटने पर राजा को ज्ञात हुआ कि पीछे से कुम्हलनेर के राजा देवपाल ने पद्मावती को फुसलाने के लिए दूती भेजी थी अतएव वह देवपाल से युद्ध करने को चल पड़ा। वहाँ देवपाल को मार राजा स्वयं बुरी तरह घायल हुआ और मार्ग में ही स्वर्ग सिधार गया। उसका शव चित्तौड़ लाया गया। पद्मावती और नागमती दोनों रानियाँ उसके साथ जलकर सती हो गई। इतने में अलाउद्दीन भी अपनी सेना लेकर वहां आ धमका पर मुट्ठी-भर राख के सिवा वहाँ उसके हाथ कुछ न लगा।

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