कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 41 प्रेमचन्द की कहानियाँ 41प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का इकतालीसवाँ भाग
प्रेमनाथ ने हाथ हिलाकर मना करते हुए कहा- ''हर्गिज़ नहीं। मुझे यहीं मरने दीजिए। मेरे कर्मो की यही सजा है। मरने के बाद अंत्येष्टि-क्रिया की फ़िक्र कोई कर ही देगा। उस वक्त अलबत्ता एक खत डाल दीजिएगा कि बदनसीब प्रेमनाथ एड़ियाँ रगड़-रगड़ कर मर गया, और अब जहन्नुम की यातना झेल रहा है। मरने में अब बहुत देर नहीं, ताहिर अली। ज्यादा-से-ज्यादा दो दिन। मेरी ससुराल लखनऊ में है। मुहल्ला नौबस्ता। मेरे ससुर का नाम बाबू निहालचंद है। मगर भाईजान, खुदा के लिए मरने से पहले खत न लिखिएगा। आपको खुदा की क़सम है। इस रू-स्याह की अब कफ़न में ही पर्दापोशी होगी।''
तीसरे दिन कोई पहर रात गए दो औरतें मस्जिद के सामने आकर खड़ी हुईं। एक मजदूरनी थी, दूसरी गोमती। दोनों मस्जिद की तरफ़ ताक रही थीं। कुछ पूछने की हिम्मत न पड़ती थी। गोमती आहिस्ता से बोली- ''यहाँ कोई है कि नहीं? पूछा, यही रहीम खाँ की मस्जिद है?''
मजदूरनी ने कहा- ''किससे पूछूँ? कोई दिखाई भी तो दे! (मौलवी को देखकर) अरे मियाँ साहब! यही रहीम खाँ की मस्जिद है ना?''
ताहिर अली उन दोनों को देखते ही लपककर अंदर आए और प्रेमनाथ से बोले- ''उकत हुसैन, उकत हुसैन! सो गए क्या? तुम्हारे घर के लोग आ गए।''
प्रेमनाथ उठकर बैठा ही नहीं, खड़ा हो गया और घबराहट के आलम में दो क़दम आगे बढकर फिर रुक गया और ताज्जुब से बोला, ''मेरे घर के लोग! ख्वाब देखा है क्या?''
ताहिर- ''ख्वाब नहीं है। जनाब, हक़ीकत है। जरूर तुम्हारे घर वाले हैं। बुला लाऊँ? एक बुढ़िया ने मुझसे पूछा, यही रहीम खाँ की मस्जिद है? मैंने कुछ जवाब न दिया। सोचा, पहले तुम्हें खबर कर दूँ।''
प्रेम ने कोमलता से देखकर पूछा- ''तुमने खत तो नहीं लिख दिया था?''
ताहिर अली ने विवशतापूर्ण लहजे में कहा, - ''हाँ भई, लिख तो दिया। मुझसे तुम्हारी हालत देखकर न रहा गया।''
प्रेम- ''मैंने तो तुम्हें कसम दिला दी थी। फिर भी तुमने न माना। मुझे तुमसे इस कमीनेपन की उम्मीद न थी। मैं इसे खुल्लमखुल्ला कमीनापन और दगा समझता हूँ।''
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