कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 41 प्रेमचन्द की कहानियाँ 41प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का इकतालीसवाँ भाग
मस्जिद में एक मौलवी साहब रहते थे! ताहिर अली नाम था। निःस्वार्थ आदमी थे, उन्हें प्रेमनाथ की हालत पर रहम आता था। अपने खाने में उन्हें शरीक कर लेते। एक दिन उनसे कहा- ''अपने घर क्यों नहीं चले जाते? यहाँ कब तक पड़े रहोगे? आखिर घर तो नहीं गिर गया। मैं देखता हूँ यहाँ तुम्हारी हालत रोज़-बरोज बुरी होती जा रही है।''
प्रेमनाथ ने आहे-सर्द खींचकर कहा, ''क्यों जले पर नमक छिड़कते हो मौलवी साहब, मेरा अब घर-बार कहाँ? घर तो कब का बिक चुका है। अब तो कब्र में ही शांति नसीब होगी।''
''फिर भी भला एक बार अपने घरवालों को बुलाओ तो, देखो, क्या जवाब आता है? बीवी को तो नहीं कहता, लेकिन माँ, बच्चे की यह हालत देखकर उसके सारे कुसूर मुआफ़ कर देगी और छाती से लगा लेगी।''
प्रेमनाथ ने मायूसाना अंदाज़ से कहा- ''इतना जानता हूँ मौलवी साहब, अम्माँ को खबर मिल जाए तो वह चाहे कहीं हों दौड़ी चली आएँगी। बीवी की जानिब से भी मुझे इसका पूर्ण यक़ीन है। वह वफ़ा की देवी है, मौलवी साहब। ऐसी शर्म व हया तो मैंने कभी देखी नहीं। मुझे यकीन है कि वह जरूर आएगी। मगर कहूँ किस मुँह से, जाऊँ कैसे? अब उन्हें यह कलुषित आत्मा नहीं दिखा सकता। यहीं पड़े-पड़ मर जाना कुबूल है। उनके गम को ताज़ा नहीं कर सकता। आह! मैं कुल-कलंकी हूँ। मौलवी साहब मैंने बुजुर्गों का नाम डुबो दिया। मेरे पास इतना धन-दौलत था कि कई पीढ़ियों तक निश्चिंतता से गुज़रान होती, लेकिन अब कंगाल हूँ। यहाँ तक कि हिम्मत की लकड़ी भी हाथ में नहीं है। अब तो ईश्वर से यही दुआ है कि जितनी जल्द हो सके मेरी मुसीबतों का खात्मा कर दें।''
मौलवी साहब ने कठोर होकर कहा- ''ईश्वर क्यों, खुदा कहो साहब!''
प्रेमनाथ तिरस्कारपूर्ण लहजे में बोले- ''आपके लिए खुदा और ईश्वर दो होंगे, जनाब। मेरे लिए एक हैं। दुनिया साझे की खेती नहीं जिसे ईश्वर, खुदा, ब्रह्मा, लार्ड और जीसस ने मिलकर लगाई हो।''
मौलवी साहब लज्जित होकर बोले- ''बात तो यही है बिरादर। हाँ, एक ईश्वर का जो नाम हमेशा सुनते आए हैं, उसकी बजाए कोई दूसरा नाम सुनते हैं तो वह जरा कानों को अपरिचित मालूम होता है। खैर, कहो तो तुम्हारे ससुराल एक खत लिख दूँ?''
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