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प्रेमचन्द की कहानियाँ 36

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :189
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9797
आईएसबीएन :9781613015346

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का छत्तीसवाँ भाग


गुजराती को तीरथ करने में साल-भर लगा। उसने खयाल किया था कि तीरथ के मुक़ामों में शायद सत्यदेव का कुछ पता मिले, लेकिन साल-भर की प्रयत्न के बाद वो नामुराद लौट आई। मैंने इसकी वापसी की खबर सुनी तो इजहारे-हमदर्दी के लिए उसके पास जाने का इरादा किया। मगर एक-न-एक रुखना पड़ता गया और छ: महीने तक मुझे फुरसत न मिली। बाला आखिर सातवें महीने में घरेलू चिंताओं से मुँह मोड़कर अपने मौजा में जा पहुँची।

मैंने समझा था, गुजराती के दरवाजे पर खाक उड़ रही होगी। सन्नाटा छाया होगा और वो खुद सोगवारों की-सी गमगीन सूरत बनाए उदास बैठी होगी, लेकिन जब उसके दरवाजे पर पहुँची तो उम्मीद के प्रतिकूल चारों तरफ़ रौनक और चहलपहल नज़र आईं, बाहर सहन में क्यारियाँ बनी हुई थीं। उन पर गुलाब और बेले खिले हुए थे। मंदिर के महराबों पर लताएँ चढ़ी हुई थीं। कुएँ में दो-तीन साधु बैठे हुए गाँजे के दम लगा रहे थे। अंदर गई तो आँगन में कई गाएँ और भैंसे बँधी हुई थीं। बछड़े कुलेलें कर रहे थे। नौ बज गए थे। एक तरफ़ दही बिलोया जा रहा था। दूसरी तरफ़ बड़ी-बड़ी हाँडियों में दूध गरम हो रहा था, चारों तरफ़ बरामदों में खूँटियों पर पिंजरे लटके हुए थे। उनमें तरह-तरह की चिड़ियाँ पली हुई थीं। एक किनारे एक हिरन का बच्चा कटोरी में दूध पी रहा था। गुजराती मुझे देखते ही टूटकर गले मिली। उसके जिस्म पर एक जेवर भी न था। गले में कंठी थी और कलाइयों में चाँदी की चूड़ियाँ। मगर चेहरा फूल की तरह खिला हुआ था। बड़ी-बड़ी आँखों से रूहानियत टपक रही थी। शोक के अल्फाज होठों पर आकर रुक गए थे। उसने मेरी दुविधा का सही अंदाज़ा करके खुद ही पहल की और बोली- ''आओ बहन जी। तुम से मिलने को बहुत जी चाहता था। बड़ी राह दिखाई। घर पर तो सब कुशल है? बच्चे अच्छी तरह हैं?

मैंने कहा- ''तुम्हारे यहाँ तो एक पूरा गौशाला खुल गया है।''

गुजराती- ''हाँ, यह गाँवों के बच्चों का गौशाला है। ज़िंदगी में आदमी को कुछ-न-कुछ काम तो करना ही चाहिए। यह सब दूध गाँव-भर के लड़कों को पिलाती हूँ। कभी-कभी साधु-संत लोग आ जाते हैं। इन्हें कुछ दे देती हूँ। चिड़ियाँ दिल बहलाने के लिए पाल रखी हैं। इन्हीं जानवरों के रखरखाव में दिन कट जाता है। बहन जी, तुम से परदा नहीं करती। मुझसे तो निरास होकर रोया नहीं जाता और क्यों रोऊँ? पहले अकेले सत्यदेव के लिए सब-कुछ करती थी, अब गाँव-भर के बच्चों के लिए करती हूँ। जब सब बच्चे आ-आकर अपना-अपना हिस्सा दूध पीने लगते हैं तो मुझे जितना आनंद मिलता है वह तुमसे कह नहीं सकती। सत्यदेव यहाँ रहता तो यह सुख मुझे कहाँ मयस्सर होता? कभी-कभी बुराई में भी भलाई हो जाती है। गाँव के लोग चारा-भूसा दे देते हैं। मुझे बैठे-बिठाए सनेत में जस मिलता है। बस एक यही लालसा और है कि गाँव में एक छोटी-सी धरमशाला बन जाए। मुझे आठों पहर इसकी चिंता रहती है। देखें भगवान कब तक यह मुराद पूरी करते हैं। मरने से पहले इतना काम और हो जाता तो मेरा जीवन सफल हो जाता। तुम्हें भी मेरी कुछ-न-कुछ मदद करनी पड़ेगी।''

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