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प्रेमचन्द की कहानियाँ 36

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :189
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9797
आईएसबीएन :9781613015346

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का छत्तीसवाँ भाग


कितनी हिम्मत आला थी, कितना उपकार का उत्साह। मैं इसकी जगह पर होती तो या तो रो-रोकर मर ही जाती या ज़िंदा भी रहती तो मुरदा से बदतर। बोली- ''हाँ, हाँ, तुम काम शुरू करो। मुझसे जो कुछ हो सकेगा, मैं इसमें दरेज न करूँगी। तुम्हारी हिम्मत को धन्य है कि अकेली जान पर इतनी बलाएँ उठा रखी हैं। इतने पुण्य का बोझ लेकर कैसे स्वर्ग में जाओगी?''

थोड़े ही दिनों में गुजराती ने धर्मशाला की तामीर शुरू करा दी, आसपास के जमींदारों और महाजनों ने मदद की। काम चल निकला और चंद माह में एक पुख्ता दो-मंजिला इमारत खड़ी हो गई, जिसमें पचास आदमी बआसाइश (आराम से) ठहर सकते थे। मगर इधर तो धर्मशाला बन रही थी, उधर गुजराती पर फालिज का हमला हुआ। रात-दिन की व्यस्तता बलाए-जान हो गई। साल-भर तक इलाज होता रहा। बचने की कोई उम्मीद न थी। सारा विकृत हो गया था, लेकिन हयात बाक़ी थी। जान बच गई। हाँ, दोनों हाथ बेकार हो गए और आँखों की बीनाई भी जाती रही। गोशाला तबाह हो गई। दया का स्रोत सूख गया। चिड़ियाँ बंद क़ैद से आज़ाद हो गईं। कुत्ते और बिल्लियाँ, हिरन और नेवले आवारागर्द हो गए। एक बार फिर लहलहाता हुआ बारा वीरान हो गया। मैं भी हाल-चाल पूछने के लिए गुजराती के पास पहुँची। उसकी बिलकुल काया ही पलट गई थी। बदन तार-तार, चेहरा जर्द, सर के बाल खाल-खाल रह गए थे, जैसे किसी ने पौधे की टहनियाँ और पत्ते तोड़ लिए हों, सिर्फ़ ठूँठ ही बाकी रह गया हो। दोनों आँखें बैठ गई थीं। मैं इसकी हालत देखकर रो पड़ी। गुजराती ने कहा- ''बहन जी, तुम खूब आईं। भेंट हो गई। कौन जाने, अब मिलना बदा है या नहीं। अब थोड़े ही दिनों की मेहमान हूँ। इतना करना कि धरमसाला बना रहे और हर साल इसकी मरम्मत होती जाए।''

मैंने सांत्वना देते हुए कहा- ''इसकी तरफ़ से तुम बेफ़िक्र रहो। मैं इसके लिए इसी मौजे का एक हिस्सा दान कर दूँगी। अब तो यहाँ अकेले पड़े-पड़े तुम्हारी तबियत घबराती होगी। कोई तिमारदारी करने वाला भी नहीं। क्यों न मेरे साथ चलो। वहीं बाल-बच्चों में जी बहलता रहेगा। मैं खुद तुम्हारी खिदमत में हाज़िर रहूँगी। कोई तकलीफ़ न होगी।''

गुजराती ने रूखी हँसी हँसकर कहा- ''जो काम ज़िंदगी-भर न किया, वह अब करूँ, तन पालूँ?''

मैंने कुछ चकित होकर कहा- ''इसमें तन पालने की कौन बात है। तुम्हारा इस हालत में पड़ा रहना मुझसे नहीं देखा जाता।''

गुजराती कुछ जवाब न देने पाई थी कि चार-पाँच औरतें घूँघट निकाले हुए आ गईं और बोलीं- ''बुआजी, आज तो बाल-काण्ड होगा न। थोड़ा ही तो रह गया है। इसे आज समाप्त कर दीजिए।''

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