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प्रेमचन्द की कहानियाँ 29

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :182
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9790
आईएसबीएन :9781613015278

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का उन्तीसवाँ भाग


रात के दस बज गए थे। हिन्दू-सभा के कैम्प में सन्नाटा था। केवल चौबेजी अपनी रावटी में बैठे हिन्दू-सभा के मंत्री को पत्र लिख रहे थे- यहाँ सबसे बड़ी आवश्यकता धन की है। रुपया, रुपया, रुपया! जितना भेज सकें भेजिए। डेपुटेशन भेज कर वसूल कीजिए, मोटे महाजनों की जेब टटोलिए, भिक्षा माँगिए। बिना धन के उद्धार न होगा। जब तक कोई पाठशाला न खुले, कोई चिकित्सालय स्थापित न हो, कोई वाचनालय न हो, उन्हें कैसे विश्वास आएगा कि हिंदू-सभा उनकी हितचिंतक है। तबलीगवाले जितना खर्च कर रहे हैं उसका आधा भी मुझे मिल जाए, तो हिंदू-धर्म की पताका फहराने लगे। केवल व्याख्यानों से काम न चलेगा। असीसों से कोई जिंदा नहीं रहता।

सहसा किसी की आहट पाकर वह चौंक पड़े। आँखें ऊपर उठायीं  तो देखा, दो आदमी सामने खड़े हैं। पंडितजी ने शंकित होकर पूछा- तुम कौन हो, क्या काम है?
 
उत्तर मिला- हम इजराईल के फरिश्ते हैं तुम्हारी रूह कब्ज करने आये हैं। हजरत इजराईल ने तुम्हें याद किया।

पंडितजी यों बहुत ही बलिष्ठ पुरुष थे, उन दोनों को एक धक्के में गिरा सकते थे। प्रातःकाल तीन पाव मोहनभोग और दो सेर दूध का नाश्ता करते थे। दोपहर के समय पाव भर घी दाल में खाते, तीसरे पहर दूधिया भंग छानते जिसमें सेर भर मलाई और आधा सेर बादाम मिला रहता। रात को डटकर ब्यालू करते; क्योंकि प्रातःकाल तक फिर कुछ न खाते थे। इस पर तुर्रा यह कि पैदल पग भर भी न चलते थे। पालकी मिले, तो पूछना ही क्या, जैसे घर का पलंग उड़ा जा रहा हो। कुछ न हो तो इक्का तो था ही; यद्यपि काशी में दो ही चार इक्केवाले ऐसे थे, जो उन्हें देखकर कह न दें कि ‘‘इक्का खाली नहीं है।’’ ऐसा मनुष्य नर्म अखाड़े में पकड़कर ऊपरवाले पहलवान को थका सकता था, चुस्ती और फुर्ती के अवसर पर तो वह रेत पर निकला हुआ कछुआ था।
 
पंडित जी ने एक बार कनखियों से दरवाजे की तरफ देखा। भागने का कोई मौका न था। कब उनमें साहस का संचार हुआ। भय की पराकाष्ठा ही साहस है। अपने सोंटे की तरफ हाथ बढ़ाया, और गरजकर बोले- निकल जाओ यहाँ से...

बात मुँह से पूरी न निकली थी कि लाठियों का वार पड़ा। पंडितजी मूर्च्छित होकर गिर पड़े। शत्रुओं ने समीप आकर देखा, जीवन का कोई लक्षण न था। समझ गए, काम तमाम हो गया। लूटने का तो विचार न था, पर जब कोई पूछनेवाला न हो तो हाथ बढ़ाने में क्या हर्ज? जो कुछ हाथ लगा; ले-देकर चलते हुए।

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