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प्रेमचन्द की कहानियाँ 29

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :182
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9790
आईएसबीएन :9781613015278

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का उन्तीसवाँ भाग


प्रातःकाल बूढ़ा भी उधर से निकला, तो सन्नाटा छाया हुआ था- न आदमी न आदमजात, छोलदारियाँ भी गायब!  चकराया, यह माजरा क्या है? रात ही भर में अलादीन के महल की तरह सब-कुछ गायब हो गया। उन महात्माओं में से एक भी नहीं, जो प्रातः काल मोहनभोग उड़ाते और संध्या समय भंग घोटते दिखाई देते थे। जरा और समीप जाकर पंडित लीलाधर की रवटी में झाँका, तो कलेजा सन्न हो गया। पंडित जी जमीन पर मुर्दे की तरह पड़े हुए थे। मुँह पर मक्खियाँ भिनक रही थीं। सिर के बालों में रक्त ऐसा  जम गया था, जैसे किसी चित्रकार के ब्रश में रंग। सारे कपड़े लहूलुहान हो रहे थे। समझ गया, पंडित के साथियों ने उन्हें मारकर अपनी राह ली। सहसा पंडितजी के मुँह से कराहने की आवाज निकली। अभी जान बाकी थी। बूढ़ा तुरन्त दौड़ा हुआ गाँव में गया कई आदमियों को लाकर पंडितजी को अपने घर उठवा ले  गया।

मरहम-पट्टी होने लगी। बूढ़ा दिन-के-दिन और रात-की-रात पंडित जी के पास बैठा रहता। उसके घरवाले उनकी सेवा-शुश्रूषा में लगे रहते। गाँववाले भी यथाशक्ति सहायता करते। इस बेचारे का यहाँ कौन अपना बैठा हुआ है? अपने हैं तो हम बेगाने हैं तो हम। हमारे ही उद्धार के लिए तो बेचारा यहाँ आया था, नहीं तो यहाँ उसे क्या लेना था? कई बार पंडित जी अपने घर पर बीमार पड़ चुके थे। पर उनके घरवालों ने इतनी तन्मयता से कभी तीमारदारी न की थी। सारा घर, और घर ही नहीं, सारा गाँव उनका गुलाम बना हुआ था।

अतिथि-सेवा उनके धर्म का एक अंग थी। सभ्य-स्वार्थ ने अभी उस भाव का गला नहीं घोटा था। साँप का मंत्र जाननेवाला देहाती अब भी माघ-पूस की अँधेरी मेघाच्छन्न रात्रि में मंत्र झाड़ने के लिए-पाँच कोस पैदल दौड़ता हुआ चला जाता है। उसे डबल फीस और सवारी की जरूरत नहीं होती। बूढ़ा मल-मूत्र कर अपने हाथों उठाकर फेंकता, पंडितजी की घुड़कियाँ सुनता, सारे गाँव से दूध मांगकर उन्हें पिलाता; पर उसकी त्योरियाँ कभी मैली न होतीं। अगर उसके कहीं चले जाने पर घरवाले लापरवाही करते, तो आकर सबको डाँटता।

महीने भर के बाद पंडितजी चलने-फिरने लगे, और अब उन्हें ज्ञात हुआ कि इन लोगों ने मुझे मौत के मुँह से निकाला नहीं तो मरने में क्या कसर रह गयी थी? उन्हें अनुभव हुआ कि मैं जिन लोगों को नीच समझता था। और जिनके उद्धार का बीड़ा उठाकर आया था, वे मुझसे कहीं ऊँचे हैं। इस परिस्थिति में मैं कदाचित रोगी को किसी अस्पताल भेजकर ही अपनी कर्तव्य निष्ठा पर गर्व करता; समझता मैंने दधीचि और हरिशचन्द्र का मुँख उज्जवल कर दिया। उनके रोएँ-रोएँ से इन देव-तुल्य प्राणियों के प्रति आशीर्वाद निकलने लगा।

तीन महीने गुजर गए। न तो हिंदू-सभा ने पंडितजी की खबर ली, और न घरवालों ने। सभा के मुखपत्र में उनकी मृत्यु पर आँसू बहाए गए। उनके कामों की प्रशंसा की गई और उनका स्मारक बनाने के लिए चंदा खोल दिया गया घरवाले भी रो-पीटकर बैठ रहे।

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