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प्रेमचन्द की कहानियाँ 25

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :188
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9786
आईएसबीएन :9781613015230

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का पच्चीसवाँ भाग


प्रभा इसके जवाब में रोने के सिवा और क्या कर सकती थी? आखिर एक दिन पशुपति ने उसे विनयपूर्ण शब्दों में कहा- क्या कहूं प्रभा, उस रमणी की छवि मेरी आंखों से नही उतरती। उसने मुझे कहीं का नहीं रक्खा। यह कहकर उसने कई बार अपना माथा ठोका।

प्रभा का हृदय करुणा से द्रवित हो गया। उसकी दशा उस रोगी की-सी-थी जो यह जानता हो कि मौत उसके सिर पर खेल रही है, फिर भी उसकी जीवन-लालसा दिन-दिन बढती जाती हो। प्रभा इन सारी बातों पर भी अपने पति से प्रेम करती थी और स्त्री-सुलभ स्वभाव के अनुसार कोई बहाना खोजती थी कि उसके अपराधों को भूल जाय और उसे क्षमाकर दे।

एक दिन पशुपति बड़ी रात गये घर आया और रात-भर नींद में ‘कृष्णा! कृष्णा!’ कहकर बर्राता रहा। प्रभा ने अपने प्रियतम का यह आर्तनाद सुना और सारी रात चुपके-चुपके रोया की…बस रोया की! प्रात: काल वह पशुपति के लिए दूध का प्याला लिये खड़ी थी कि वह उसके पैरों पर गिर पड़ा और बोला- प्रभा, मेरी तुमसे एक विनय है, तुम्ही मेरी रक्षा कर सकती हो, नहीं मैं मर जाऊंगा। मैं जनता हूं कि यह सुनकर तुम्हें बहुत कष्ट होगा, लेकिन मुझ पर दया करो। मैं तुम्हारी इस कृपा को कभी न भूलूंगा। मुझ पर दया करो।

प्रभा कांपने लगी। पशुपति क्या कहना चाहता है, यह उसका दिल साफ बता रहा था। फिर भी वह भयभीत होकर पीछे हट गई और दूध का प्याला मेज पर रखकर अपने पीले मुख को कांपते हुए हाथों से छिपा लिया। पशुपति ने फिर भी सब कुछ ही कह डाला। लालसाग्नि अब अंदर न रह सकती थी, उसकी ज्वाला बाहर निकल ही पड़ी। तात्पर्य यह था कि पशुपति ने कृष्णा के साथ विवाह करना निश्चय कर लिया था। वह से दूसरे घर में रक्खेगा और प्रभा के यहां दो रात और एक रात उसके यहां रहेगा। ये बातें सुनकर प्रभा रोई नहीं, वरन स्तम्भित होकर खड़ी रह गई। उसे ऐसा मालूम हुआ कि उसके गले में कोई चीज अटकी हुई है और वह सांस नहीं ले सकती। पशुपति ने फिर कहा- प्रभा, तुम नहीं जानती कि जितना प्रेम तुमसे मुझे आज है उतना पहले कभी नहीं था। मैं तुमसे अलग नहीं हो सकता। मैं जीवन-पर्यन्त तुम्हें इसी भांति प्यार करता रहूंगा। पर कृष्णा मुझे मार डालेगी। केवल तुम्ही मेरी रक्षा कर सकती हो। मुझे उसके हाथ मत छोड़ो, प्रिये!

अभागिनी प्रभा! तुझसे पूछ-पूछ कर तेरी गर्दन पर छुरी चलाई जा रही है! तू गर्दन झुका देगी या आत्मगौरव से सिर उठाकर कहेगी- मैं यह नीच प्रस्ताव नहीं सुन सकती। प्रभा ने इन बातों में एक भी न की। वह अचेत होकर भूमि पर गिर पड़ी। जब होश आया, कहने लगी- बहुत अच्छा, जैसी तुम्हारी इच्छा! लेकिन मुझे छोड़ दो, मैं अपनी मां के घर जाऊंगी, मेरी शान्ता मुझे दे दो। यह कहकर वह रोती हुई वहां से शांता को लेने चली गई और उसे गोद में लेकर कमरे से बाहर निकली।

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