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प्रेमचन्द की कहानियाँ 25

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :188
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9786
आईएसबीएन :9781613015230

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का पच्चीसवाँ भाग


सन्ध्या का समय था। पशुपति सैर करने गया था। प्रभा कोठे पर चढ गई और सामने वाले मकान की ओर देखा। घुंघराले बालोंवाला युवक उसके कोठे की ओर ताक रहा था। प्रभा ने आज पहली बार उस युवक की ओर मुस्करा कर देखा। युवक भी मुस्कराया और अपनी गर्दन झुकाकर मानों यह संकेत किया कि आपकी प्रेम दृष्टि का भिखारी हूं। प्रभा ने गर्व से भरी हुई दृष्टि इधर-उधर दौड़ाई, मानों वह पशुपति से कहना चाहती थी- तुम उस कुलटा के पैरों पड़ते हो और समझते हो कि मेरे हृदय को चोट नहीं लगती। लो तुम भी देखो और अपने हृदय पर चोट न लगने दो, तुम उसे प्यार करो, मैं भी इससे हंसू-बोलू। क्यों? यह अच्छा नहीं लगता? इस दृश्य को शान्त चित से नहीं देख सकते? क्यों रक्त खौलने लगता है? मैं वही तो कह रही हूं जो तुम कर रहे हो! आह! यदि पशुपति को ज्ञात हो जाता कि मेरी निष्ठुरता ने इस सती के हृदय की कितनी कायापलट कर दी है तो क्या उसे अपने कृत्य पर पश्चाताप न होता, क्या वह अपने किये पर लज्जित न होता! प्रभा ने उस युवक से इशारे में कहा- आज हम और तुम पूर्व वाले मैदान में मिलेंगे और कोठे के नीचे उतर आई।

प्रभा के हृदय में इस समय एक वही उत्सुकता थी जिसमें प्रतिकार का आनन्द मिश्रित था। वह अपने कमरे में जाकर अपने चुने हुए आभूषण पहनने लगी। एक क्षण में वह एक फालसई रंग की रेशमी साड़ी पहने कमरे से निकली और बाहर जाना ही चाहती थी कि शान्ता ने पुकारा- अम्मा जी, आप कहां जा रही हैं, मैं भी आपके साथ चलूंगी।

प्रभा ने झट बालिका को गोद में उठा लिया और उसे छाती से लगाते ही उसके विचारों ने पलटा खाया। उन बाल नेत्रों में उसके प्रति कितना असीम विश्वास, कितना सरल स्नेह, कितना पवित्र प्रेम झलक रहा था। उसे उस समय माता का कर्त्तव्य याद आया। क्या उसकी प्रेमाकांक्षा उसके वात्सल्य भाव को कुचल देगी? क्या वह प्रतिकार की प्रबल इच्छा पर अपने मातृ-कर्त्तव्य को बलिदान कर देगी? क्या वह अपने क्षणिक सुख के लिए उस बालिका का भविष्य, उसका जीवन धूल में मिला देगी? प्रभा की आंखों से आंसू की दो बूंदें गिर पड़ीं। उसने कहा- नहीं, कदापि नहीं, मैं अपनी प्यारी बच्ची के लिए सब कुछ सह सकती हूं।

एक महीना गुजर गया। प्रभा अपनी चिन्ताओं को भूल जाने की चेष्टा करती रहती थी, पर पशुपति नित्य किसी न किसी बहाने से कॄष्णा की चर्चा किया करता। कभी-कभी हंसकर कहता- प्रभा, अगर तुम्हारी अनुमति हो तो मैं कृष्णा से विवाह कर लूं।

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