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प्रेमचन्द की कहानियाँ 25

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :188
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9786
आईएसबीएन :9781613015230

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का पच्चीसवाँ भाग


पशुपति लज्जा और ग्लानि से सिर झुकाये उसके पीछे-पीछे आता रहा और कहता रहा- जैसी तुम्हारी इच्छा हो प्रभा, वह करो, और मैं क्या कहूं, किंतु मेरी प्यारी प्रभा, वादा करो कि तुम मुझे क्षमा कर दोगी। किन्तु प्रभा ने उसको कुछ जवाब न दिया और बराबर द्वार की ओर चलती रही। तब पशुपति ने आगे बढ़कर उसे पकड लिया और उसके मुरझाये हुए पर अश्रु-सिचिंत कपोलों को चूम-चूमकर कहने लगा- प्रिये, मुझे भूल न जाना, तुम्हारी याद मेरे हृदय में सदैव बनी रहेगी। अपनी अंगूठी मुझे देती जाओ, मैं उसे तुम्हारी निशानी समझ कर रक्खूंगा और उसे हृदय से लगाकर इस दाह को शीतल करूंगा। ईश्वर के लिए प्रभा, मुझे छोड़ना मत, मुझसे नाराज न होना…एक सप्ताह के लिए अपनी माता के पास जाकर रहो। फिर मैं तुम्हें जाकर लाऊंगा।

प्रभा ने पशुपति के कर-पाश से अपने को छुड़ा लिया और अपनी लड़की का हाथ पकड़े हुए गाड़ी की ओर चली। उसने पशुपति को न कोई उत्तर दिया और न यह सुना कि वह क्या कह रहा है।

अम्मां, आप क्यों हंस रही है?

‘कुछ तो नहीं बेटी।‘

‘वह पीले-पीले पुराने कागज तुम्हारे हाथ में क्या हैं?’

‘ये उस ऋण के पुर्जे हैं जो वापस नहीं मिला।‘

‘ये तो पुराने खत मालूम होते हैं?’

‘नहीं बेटी।‘

बात यह थी कि प्रभा अपनी चौदह वर्ष की युवती पुत्री के सामने सत्य का पर्दा नहीं खोलना चाहती थी। हां, वे कागज वास्तव में एक ऐसे कर्ज के पुर्जे थे जो वापस नहीं मिला। ये वही पुराने पत्र थे जो आज एक किताब में रक्खे हुए मिले थे और ऐसे फूल की पंखुड़ियों की भांति दिखाई देते थे जिनका रंग और गंध किताब में रक्खे-रक्खे उड़ गई हो, तथापि वे सुख के दिनों को याद दिला रहे थे और इस कारण प्रभा की दृष्टि में वे बहुमूल्य थे।

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