कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 23 प्रेमचन्द की कहानियाँ 23प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का तेइसवाँ भाग
स्त्री- तुमसे कुछ रुपयों के विषय ही में कहने आया था। उसे देखते ही भागा।
चौधरी- अच्छा; फिर तो अंदर जाओ, मैं देख रहा हूँ।
स्त्री ने कान पर हाथ रख कर कहा- न बाबा, अब मैं उस कमरे में कदम न रखूँगी।
चौधरी- अच्छा, मैं जा कर देखता हूँ।
चौधरी ने कोठरी में जा कर दोनों थैलियाँ ताक पर से उठा लीं। किसी प्रकार की शंका न हुई। गोमती की छाया का कहीं नाम भी न था। स्त्री द्वार पर खड़ी झाँक रही थी। चौधरी ने आ कर गर्व से कहा- मुझे तो कहीं कुछ न दिखायी दिया। वहाँ होती, तो कहाँ चली जाती?
स्त्री- क्या जाने, तुम्हें क्यों नहीं दिखायी दी? तुमसे उसे स्नेह था, इसी से हट गयी होगी।
चौधरी- तुम्हें भ्रम था, और कुछ नहीं।
स्त्री- बच्चा को बुला कर पुछाये देती हूँ।
चौधरी- खड़ा तो हूँ, आ कर देख क्यों नहीं लेतीं?
स्त्री को कुछ आश्वासन हुआ। उसने ताक के पास जा कर डरते-डरते हाथ बढ़ाया, जोर से चिल्ला कर भागी और आँगन में आ कर दम लिया। चौधरी भी उसके साथ आँगन में आ गया और विस्मय से बोला- क्या था, क्या? व्यर्थ में भागी चली आयी। मुझे तो कुछ न दिखायी दिया। स्त्री ने हाँफते हुए तिरस्कारपूर्ण स्वर में कहा- चलो हटो, अब तक तो तुमने मेरी जान ही ले ली थी। न जाने तुम्हारी आँखों को क्या हो गया है। खड़ी तो है वह डायन !
इतने में हरनाथ भी वहाँ आ गया। माता को आँगन में खड़े देख कर बोला- क्या है अम्माँ, कैसा जी है?
स्त्री- वह चुड़ैल आज दो बार दिखायी दी, बेटा। मैंने कहा लाओ, तुम्हें रुपये दे दूँ। फिर जब हाथ में जा जाएँगे, तो कुआँ बनवा दिया जायगा। लेकिन ज्यों ही थैलियों पर हाथ रखा, उस चुड़ैल ने मेरा हाथ पकड़ लिया। प्राण-से निकल गये।
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