कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 23 प्रेमचन्द की कहानियाँ 23प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का तेइसवाँ भाग
स्त्री- इस वक्त उसने कुछ नहीं खाया। पहली जून भी मुँह जूठा करके उठ गया था।
चौधरी- तुमने समझाकर खिलाया नहीं, दाना-पानी छोड़ देने से तो रुपये न मिलेंगे।
स्त्री- तुम क्यों नहीं जा कर समझा देते?
चौधरी- मुझे तो इस वक्त बैरी समझ रहा होगा !
स्त्री- मैं रुपये ले जा कर बच्चा को दिये आती हूँ, हाथ में जब रुपये आ जाएँ, तो कुआँ बनवा देना।
चौधरी- नहीं, नहीं, ऐसा गजब न करना, मैं इतना बड़ा विश्वासघात न करूँगा, चाहे घर मिट्टी ही में मिल जाए।
लेकिन स्त्री ने इन बातों की ओर ध्यान न दिया। वह लपक कर भीतर गयी और थैलियों पर हाथ डालना चाहती थी कि एक चीख मार कर हट गयी। उसकी सारी देह सितार के तार की भाँति काँपने लगी।
चौधरी ने घबरा कर पूछा- क्या हुआ, क्या? तुम्हें चक्कर तो नहीं आ गया?
स्त्री ने ताक की ओर भयातुर नेत्रों से देख कर कहा- चुड़ैल वहाँ खड़ी है?
चौधरी ने ताक की ओर देख कर कहा- कौन चुड़ैल? मुझे तो कोई नहीं दीखता।
स्त्री- मेरा तो कलेजा धक्-धक् कर रहा है। ऐसा मालूम हुआ, जैसे उस बुढ़िया ने मेरा हाथ पकड़ लिया है।
चौधरी- यह सब भ्रम है। बुढ़िया को मरे पाँच साल हो गये, अब तक वह यहाँ बैठी है?
स्त्री- मैंने साफ देखा, वही थी। बच्चा भी कहते थे कि उन्होंने रात को थैलियों पर हाथ रखे देखा था !
चौधरी- वह रात को मेरी कोठरी में कब आया?
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