कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 23 प्रेमचन्द की कहानियाँ 23प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का तेइसवाँ भाग
पृथ्वीसिंह ने चौंककर इधर-उधर देखा तो धर्मसिंह के सिवाय कोई दिखाई न दिया।
धर्मसिंह- ''तेगा खींचो।''
पृथ्वीसिंह- ''मैंने उसे नहीं देखा।''
धर्मसिंह- ''वह तुम्हारे सामने खड़ा है। वह दुष्ट कुकर्मी धर्मसिंह ही है।''
पृथ्वीसिंह- (घबराकर) ''ऐं तुम! मैं !''
धर्मसिंह- ''राजपूत, अपनी प्रतिज्ञा पूरी कर।''
इतना सुनते ही पृथ्वीसिंह ने बिजली की तरह कमर से तेगा खींच लिया और उसे धर्मसिंह के सीने में चुभा दिया। मूठ तक तेगा चुभ गया। खून का फव्वारा बह निकला। धर्मसिंह जमीन पर गिरकर धीरे से बोले- ''पृथ्वीसिंह, मैं तुम्हारा कृतज्ञ हूँ। तुम सच्चे वीर हो। तुमने पुरुष का कर्त्तव्य पुरुष की भाँति पालन किया।'' पृथ्वीसिंह यह सुनकर जमीन पर बैठ गए और रोने लगे।
आज राजनंदिनी सती होने जा रही है। उसने सोलहों सिंगार किए और माँग मोतियों से भरवाई है। कलाई में सुहाग का कंगन है, पैरों में महावर लगाया है और लाल चुनरी ओढी है। उसके अंग से सुगंधि उड़ रही है, क्योंकि वह आज सती होने जाती है।
राजनंदिनी का चेहरा सूर्य की भाँति प्रकाशमान है। उसकी ओर देखने से आँखों में चकाचौंध लग जाती है। प्रेममद से उसका रोया-रोया मस्त हो गया है। उसकी आँखों से अलौकिक प्रकाश निकल रहा है। वह आज स्वर्ग की देवी जान पड़ती है। उसकी चाल बड़ी मदमाती है। वह अपने प्यारे पति का सिर अपनी गोद में लेती है, और उस चिता में बैठ जाती है जो चंदन, खस आदि से बनाई गई है।
सारे नगर के लोग यह दृश्य देखने के लिए उमड़े चले आते हैं। बाजे बज रहे हैं, फूलों की वृष्टि हो रही है, सती चिता में बैठ चुकी थी कि इतने में कुँवर पृथ्वीसिंह आए और हाथ जोड़कर बोले- ''महारानी, मेरा अपराध क्षमा करो।''
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