कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 23 प्रेमचन्द की कहानियाँ 23प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का तेइसवाँ भाग
रात बहुत बीत गई है। आकाश में अँधेरा छा गया है। सारस की दुःख से भरी हुई बोली कभी-कभी सुनाई दे जाती है और रह-रहकर क़िले के संतरियों की आवाज़ कान में आ पड़ती है। राजनंदिनी की आँख एकाएक खुली, तो उसने धर्मसिंह को पलंग पर न पाया। चिंता हुई, वह झट उठकर व्रजविलासिनी के कमरे की ओर चली और दरवाजे पर खड़ी होकर भीतर की ओर देखने लगी। संदेह पूरा हो गया। क्या देखती है कि व्रजविलासिनी हाथ में तेगा लिए खड़ी है और धर्मसिंह दोनों हाथ जोड़े उसके सामने दीनों की तरह घुटने टेके- बैठे हैं। यह दृश्य देखते ही राजनंदिनी का खून सूख गया और उसके सिर में चक्कर आने लगा, पैर लड़खड़ाने लगे। जान पड़ता था कि गिरी जाती है। वह अपने कमरे में आई और मुँह ढक कर लेट रही, पर उसकी आँखों से एक बूँद भी न निकली। दूसरे दिन पृथ्वीसिंह बहुत सबेरे ही कुँवर धर्मसिंह के पास गए और मुसकरा कर बोले- ''भैया, मौसम बड़ा सोहावना है, शिकार खेलने चलते हो?''
धर्मसिंह- ''हाँ चलो।''
दोनों राजकुमारों ने घोड़े कसवाए और दोनों जंगल की ओर चल दिए। पृथ्वीसिंह का चेहरा खिला हुआ था, जैसे कमल का फूल। एक-एक अंग से तेजी और चुस्ती टपकी पड़ती थी पर कुँवर धर्मसिंह का चेहरा मैला हो रहा था, मानो बदन में जान ही नहीं है। पृथ्वीसिंह ने उन्हें कई बार छेड़ा, पर जब देखा कि वे बहुत दुःखी हैं; तो चुप हो गए। चलते-चलते दोनो आदमी एक झील के किनारे पर पहुँचे। एकाएक धर्मसिंह ठिठके और बोले- ''मैंने आज रात को एक दृढ़ प्रतिज्ञा की है।'' यह कहते-कहते उनकी आँखों में पानी आ गया। पृथअवीसिंह ने घबड़ा कर पूछा- ''कैसी प्रतिज्ञा?''
''तुमने व्रजविलासिनी का हाल सुना है? मैंने प्रतिज्ञा की है कि जिस आदमी ने उसके बाप को मारा है, उसे भी जहन्नुम पहुँचा दूँ।''
''तुमने सचमुच वीर प्रतिज्ञा की है।''
''हाँ, यदि मैं पूरा कर सकूँ। तुम्हारे विचार मेँ ऐसा आदमी मारने योग्य है या नहीं?''
''ऐसे निर्दय की गर्दन गुट्ठल छुरी से काटनी चाहिए।''
''वेशक, यही मेरा विचार है। यदि मैं किसी कारण से यह काम न कर सकूँ तो तुम मेरी प्रतिज्ञा पूरी कर दोगे?''
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