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प्रेमचन्द की कहानियाँ 23

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :137
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9784
आईएसबीएन :9781613015216

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का तेइसवाँ भाग


पिताजी- ''यह मेरी तलवार लो, जब तक तुम यह तलवार उस राजपूत के कलेजे में न घोंप दो तब तक भोगविलास न करना।''

यह कहते-कहते पिताजी के प्राण निकल गए। मैं उसी दिन से तलवार को कपड़ों में छिपाए उस नौजवान राजपूत की तलाश में घूमने लगी। वर्षों बीत गए। मैं कभी बस्तियों में जाती, कभी पहाड़ों-जंगलों की खाक छानती, पर उस नौजवान का कहीं पता न मिलता। एक दिन मैं बैठी हुई फूटे भाग पर रो रही थी कि वही नौजवान आदमी आता हुआ दिखाई दिया। मुझे देखकर उसने पूछा- ''तू कौन है?''

मैंने कहा- ''मैं दुखिया ब्राह्मणी हूँ आप मुझ पर दया कीजिए और मुझे खाने को दीजिए।''

राजपूत- ''मेरे साथ आ।''

मैं उठ खड़ी हुई। वह आदमी बेसुध था। मैंने बिजली की तरह चमक कर कपड़ों में से तलवार निकाली और उसके सीने में घोंप दी। इतने में कई आदमी आते दिखाई पड़े। मैं तलवार छोडकर भागी। तीन वर्ष तक पहाड़ों और जंगलों में छिपी रही। बार-बार जी में आया कि कहीं डूब मरूँ, पर जान बड़ी प्यारी होती है। न जाने क्या-क्या मुसीबतें और कठिनाइयाँ भोगने को लिखी हैं, जिनको भोगने को अभी तक जीती हूँ। अंत में जब जंगल में रहते-रहते जी उकता गया, तो जोधपुर चली आई। यहीं आपकी दयालुता की चर्चा सुनी। आपकी सेवा में आ पहुँची और तब से आपकी कृपा से मैं आराम से जीवन बिता रही हूँ। यही मेरी राम कहानी है।

राजनंदिनी ने लंबी साँस लेकर कहा- ''भाई! दुनिया में कैसे-कैसे लोग भरे हुए हैं। खैर, तुम्हारी तलवार ने उसका काम तो तमाम कर दिया?''

व्रजविलासिनी- ''नहीं बहिन! वह बच गया, जख्म ओछा पड़ा था। उसी शकल के एक नौजवान राजपूत को मैंने जंगल में शिकार खेलते देखा था। नहीं मालूम वही था या और कोई; शक्ल बिलकुल मिलती थी।''

कई महीने बीत गए। राजकुमारियों ने जब से व्रजविलासिनी की रामकहानी सुनी है, उसके साथ वे और भी प्रेम और सहानुभूति का बर्ताव करने लगी हैं। पहले बिना संकोच कभी-कभी छेड़छाड़ हो जाती थी; पर अब दोनों हरदम उसका दिल बहलाया करती हैं। एक दिन बादल घिरे हुए थे; राजनंदिनी ने कहा- ''आज बिहारीलाल की 'सतसई' सुनने को जी चाहता है। वर्षा ऋतु पर उसमें बहुत अच्छे दोहे हैं।''

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