कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 23 प्रेमचन्द की कहानियाँ 23प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का तेइसवाँ भाग
पिताजी- ''तो किसी क्षत्रिय से हाथ मिलाते।''
राजपूत का चेहरा तमतमा गया- ''कोई क्षत्रिय सामने आ जाए।''
हज़ारों आदमी खड़े थे, पर किसी का साहस न हुआ कि उस राजपूत का सामना करे। यह देखकर पिताजी ने तलवार खींच ली और वे उस पर टूट पड़े। उसने भी तलवार निकाल ली और दोनों आदमियों में तलवारें चलने लगीं। पिताजी बूढ़े थे; सीने पर जख्म गहरा लगा, गिर पड़े। उन्हें उठाकर लोग घर पर लाए। उनका चेहरा पीला था, पर आँखों से उनकी गुस्से की चिनगारियाँ निकल रही थीं। मैं रोती हुई उनके सामने आई। मुझे देखते ही उन्होंने सब आदमियों को वहाँ से हट जाने का संकेत किया। जब मैं और पिताजी अकेले रह गए, तो बोले- ''बेटी तुम राजपूतनी हो?''
मैं- ''जी हाँ।''
पिताजी- ''राजपूत बात के धनी होते हैं।''
मैं- ''जी हाँ, पिताजी। इस राजपूत ने मेरी गाय की जान ली, इसका बदला तुम्हें लेना होगा।''
मैं- ''आपकी आज्ञा का पालन करूँगी।''
पिताजी- ''अगर बेटा जीता होता तो मैं यह बोझ तुम्हारी गर्दन पर न रखता।''
मैं- ''आपकी जो कुछ आज्ञा होगी, मैं सिर आंखों से पूरी करूँगी।''
पिताजी- ''तुम प्रतिज्ञा करती हो?''
मैं- ''जी हाँ।''
पिताजी- ''इस प्रतिज्ञा को पूरी कर दिखाओगी?''
मैं- ''जहाँ तक मेरा वश चलेगा मैं निश्चय यह प्रतिज्ञा पूरी करूँगी।''
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