कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 23 प्रेमचन्द की कहानियाँ 23प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का तेइसवाँ भाग
राज.- ''तो इतनी उदास क्यों रहती हो? क्या प्रेम का आनंद उठाने को जी चाहता है?''
व्रज.- ''नहीं, दुःख के सिवा मन में प्रेम का स्थान नहीं।''
राज.- ''हम प्रेम का स्थान पैदा कर देंगी।''
व्रजविलासिनी इशारा समझ गई और बोली- 'बहन, इन बातों की चरचा न करो।''
राज.- ''मैं अब तुम्हारा ब्याह रचाऊँगी। दीवानचंद को तुमने देखा है?''
व्रजविलासिनी आंसू भरकर बोली- ''राजकुमारी, मैं व्रतधारिणी हूँ और अपने व्रत का पूरा करना ही मेरे जीवन का उद्देश्य है। इस प्रण को निवाहने के लिए मैं जीती हूँ नहीं तो मैंने ऐसी-ऐसी आफतें झेली हैं कि, जीने की इच्छा अब नहीं रही। मेरे बाप विक्रमनगर के जागीरदार थे। मेरे सिवा उनके कोई संतान न थी। वे मुझे प्राण से अधिक प्यार करते थे। मेरे लिए उन्होंने वर्षों संस्कृत पढ़ी थी। युद्धविद्या में वे बड़े निपुण थे और कई बार लड़ाइयों पर गए थे।
एक दिन गोधूली बेला पर सब गाएँ जंगल से लौट रही थीं, मैं अपने द्वार पर खड़ी थी, इतने में एक जवान हथियार सजाए झूमता आता दिखाई दिया। मेरी प्रिय गाय मोहिनी इसी वक्त जंगल से लौटी थी और उसका बच्चा इधर-उधर किलोले कर रहा था। संयोगवश बच्चा उस नौजवान से टकरा गया। गाय उस आदमी पर झपटी। राजपूत बड़ा साहसी था। उसने शायद सोचा कि भागता हूँ तो कलंक का टीका लगता है। तुरंत तलवार म्यान से खींच ली और वह गाय पर झपटा। गाय झल्लाई हुई तो थी ही, कुछ भी न डरी। मेरी आँखों के सामने उस राजपूत ने उस प्यारी गाय को जान से मार डाला। देखते-देखते सैकड़ों आदमी जमा हो गए और उसको टेढ़ी-सीधी सुनाने लगे। इतने में पिताजी आ गए। वे संध्या फेरने गए थे। उन्होंने आकर देखा कि द्वार पर सैकड़ों सादमियों की भीड़ लगी है गाय तड़प रही है और उसका बच्चा भी रो रहा है। पिताजी की आहट सुनते ही गाय कराहने लगी और उनकी ओर उसने कुछ ऐसी दृष्टि से देखा कि उन्हें क्रोध आ गया। मेरे बाद इन्हें यह गाय ही प्यारी थी, वे ललकार कर बोले- 'मेरी गाय किसने मारी है?'' नौजवान लज्जा से सिर झुकाए सामने आया और बोला- ''मैंने।''
पिताजी- ''तुम क्षत्रिय हो?''
राजपूत- ''हाँ! ''
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