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प्रेमचन्द की कहानियाँ 23

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :137
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9784
आईएसबीएन :9781613015216

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का तेइसवाँ भाग


आज से व्रजविलासिनी वहीं रहने लगी। संस्कृत साहित्य में उसका बहुत प्रवेश था। वह राजकुमारियों को प्रति दिन कविता पढ़कर सुनाती थी। उसके रूप-रंग और विद्या ने धीरे-धीरे राजकुमारियों के मन में उसका प्रेम और प्रतिष्ठा उत्पन्न कर दी। यहाँ तक कि राजकुमारियों और ब्रजविलासिनी की बडाई-छुटाई उठ गई और वे सहेलियों की भाँति रहने लगीं।

कई महीने बीत गए। कुँवर पृथ्वीसिंह और धर्मसिंह दोनों महाराज के साथ अफ़गानिस्तान की मुहिम पर गए हुए थे। यहाँ विरह की घड़ियाँ 'मेघदूत' और 'रघुवंश' के पढ़ने में कटीं। ब्रजविलासिनी को कालिदास की कविता से बहुत प्रेम था और वह उनके काव्यों की टीका ऐसी उत्तमता से करती और उसमें ऐसी-ऐसी बारीकियाँ निकालती कि दोनों राजकुमारियाँ मुग्ध हो जातीं। एक दिन संध्या का समय था, दोनों राजकुमारियाँ फुलवाड़ी में सैर करने लगीं, तो देखा कि ब्रजविलासिनी हरी-हरी घास पर लेटी हुई है और उसकी आँखों से आँसू बह रहे हैं। राजकुमारियों के अच्छे बर्ताव और स्नेहपूर्ण बातचीत से उसकी सुंदरता कुछ चमक गई थी। इनके साथ अब वह भी राजकुमारी जान पड़ती थी पर इन सब बातों के रहते भी वह बेचारी बहुधा एकांत में बैठकर रोया करती। उसके दिल पर एक ऐसी चोट थी कि वह उसे दम-भर भी चैन नहीं लेने देती थी। राजकुमारियों ने उस समय उसे रोते देखा तो बड़ी सहानुभूति के साथ उसके पास बैठ गईं। राजनंदिनी ने उसका सिर अपनी जाँघ पर रख लिया और उसके गुलाब से गालों को थपथपाकर कहा- ''सखी! तुम अपने दिल का हाल हमें बताओगी? क्या अब भी हम गैर हैं? तुम्हारा यों अकेले दुःख की आग में जलना हमसे नहीं देखा जाता।''

ब्रजविलासिनी आवाज़ सम्हालकर बोली- ''बहन! मैं अभागिनी हूँ! मेरा हाल मत सुनो।''

राज.- ''अगर बुरा न मानो तो एक बात पूछूं।''

व्रज.- ''क्या, कहो।''

राज.- ''वही जो मैंने पहले दिन पूछा था। तुम्हारा ब्याह हुआ है कि नहीं?''

व्रज.- ''इसका जवाब मैं क्या दूँ? अभी नहीं हुआ।''

राज.- ''क्या किसी के प्रेम की बर्छी हृदय में छिपी हुई है?''

व्रज.- ''नहीं बहन, ईश्वर जानता है।''

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