कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 23 प्रेमचन्द की कहानियाँ 23प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का तेइसवाँ भाग
जिस प्रकार इन दोनों राजकुमारों में मित्रता थी, उसी प्रकार दोनों राजकुमारियाँ भी एक-दूसरी पर जान देती थीं। पृथ्वीसिंह की स्त्री दुर्गाकुँवर बहुत सुशीला और चतुरा थी। ननद भावज में अनबन होना लोकरीति है, पर इन दोनों में इतना स्नेह था कि एक के बिना दूसरी को कभी कल नहीं पड़ता था। दोनों स्त्रियाँ संस्कृत से प्रेम रखती थीं। एक दिन दोनों राजकुमारियाँ बाग की सैर में मग्न थीं कि एक दासी ने राजनंदिनी के हाथ में एक काग़ज़ लाकर रख दिया। राजनंदिनी ने उसे खोला तो वह संस्कृत का एक पत्र था। उसे पढ़कर उसने दासी से कहा कि उन्हें भेज दे। थोड़ी देर में एक स्त्री सिर से पैर तक एक चादर ओढ़े आती दिखाई दी। इसकी उम्र 25 साल से अधिक न थी, पर इसकी रंगत पीली थी। आँखें बड़ी-बड़ी और ओंठ सूखे; चाल-ढाल में कोमलता थी और उसके डीलडौल का गठन बहुत ही मनोहर था। अनुमान से जान पड़ता था कि समय ने उसकी यह दशा कर रक्खी है पर एक समय वह भी होगा जब यह बड़ी सुंदर होगी। उस स्त्री ने आकर चौखट चूमी और आशीर्वाद देकर फ़र्श पर बैठ गई। राजनंदिनी ने उसे सिर से पैर तक बड़े ध्यान से देखा और पूछा- ''तुम्हारा नाम क्या है?''
उसने उत्तर दिया- ''मुझे व्रजविलासिनी कहते हैं।''
''कहाँ रहती हो?''
''यहाँ से तीन दिन की राह पर एक गाँव विक्रम नगर है, वहीं मेरा घर है।''
''संस्कृत कहाँ पढ़ी है?''
''मेरे पिताजी संस्कृत के बड़े पंडित थे, उन्होंने थोड़ी-बहुत पढ़ा दी है।''
''तुम्हारा ब्याह तो हो गया है न?''
ब्याह का नाम सुनते ही व्रजविलासिनी की आँखों से आँसू बहने लगे। वह आवाज़ सम्हालकर बोली- ''इसका जवाब मैं फिर कभी दूँगी; मेरी रामकहानी बड़ी दुःखमय है। उसे सुनकर आपको दुःख होगा, इसलिए इस समय क्षमा कीजिए।''
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